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दुःख के मूल : समझो और तोड़ो ३३ आगन्तुक बोला- "वाह ! आपके यहां इतना बड़ा ठाठबाट है, फिर भी आप कहते हैं कि मैं सुखी नहीं हूँ, मैं मान नहीं सकता।" - जमींदार ने भी उसे कुछ दिन रहकर अनुभव करने को कहा। तीसरे ही दिन जमींदार का अपनी पत्नी के साथ झगड़ा देखा तो आगन्तुक दंग रह गया । वह मन ही मन सोचने लगा - 'इस जमींदार की अपेक्षा तो मैं अधिक सुखी हूँ। मेरी पत्नी इतनी विनीत, सुशील, कष्टसहिष्णु और सहृदय है कि वह मेरे सामने कभी उफ् तक नहीं करती। चलो, यहाँ से ।' उसने जमींदार से भी विदा ली और चल पड़ा, एक बड़े दुकानदार के यहाँ जिसके यहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी थी और चाँदी बरस रही थी। जब सभी ग्राहकों को उसने निपटा दिया तो उसने दूकानदार से नमस्ते करके अपना कोट दे देने के लिए कहा। दुकानदार ने कहा--"भाई ! तुम मुझे जैसा सुखी समझते हो, वैसा मैं सुखी नहीं हूँ।" - आगन्तुक ने कहा- "आपको क्या दुःख है ? इतना धन बरस रहा है फिर भी आपको दुःख !"
दूकानदार ने कहा - "भाई ! इतना सब होते हुए भी मुझे तो सुख से भोजन करने को भी अवकाश नहीं मिलता। ग्राहकों की इतनी भीड़ रहती है कि प्रायः प्रतिदिन मुझे तीन-चार बजे बड़ी मुश्किल से पाँच मिनट भोजन के लिए मिलते हैं । न तो मैं समय पर खा-पी सकता हूँ, न सो सकता हूँ, न ही अपने परिवार से सुख-दुःख की बात कर सकता हूँ । मनोरंजन के लिए भी मुझे समय नहीं मिल पाता। फिर मैं अपने आपको कैसे सुखी'मान ?"
दूकानदार को भी नमस्ते करके वह छोटे व्यापारी, किसान, गोपालक, मजदूर, ग्रामीण, नागरिक आदि कई प्रकार के लोगों के पास पहुँचा; परन्तु कोई भी सुखी मनुष्य उसे नहीं मिला। निर्धन की शिकायत थीधन नहीं है। किसान की शिकायत थी-पानी न बरसने के कारण खेती में उपज अच्छी नहीं होती। मजदूर और नौकरों की शिकायत थी-- दिन-रात मालिक का काम करते हैं, फिर भी झिड़कियाँ और ताने सुनने को मिलते हैं, पैसा भी कम देता है । हमें क्या सुख है, ऐश तो ये लोग ही करते हैं।
मतलब यह है कि उस दुखिया को इतनी जगह घमने पर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जो स्वयं को सुखी कहता हो । आखिर निरुपाय होकर वह 'सोलन के पास पहुँचा और कहा-"इतना भटका किन्तु मुझे कोई सुखी नहीं मिला। अतः आप सुखी व्यक्ति का कोट लिए बिना ही सुख का कोई मन्त्र देना चाहते हों तो दे दीजिए।"