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________________ दुःख के मूल : समझो और तोड़ो ३१ रहता है, या मर जाता है । इस कारण उसके समक्ष एक के बाद दूसरा महादु:ख उपस्थित होता रहता है । किसी के अनेक पुत्र होते हैं, किन्तु वह उनके भरण-पोषण की चिन्ता से व्याकुल रहता है । सुख के कल्पित साधन सुखप्रद नहीं निष्कर्ष यह है कि दुःखरूप रोग का प्रतीकार साधारण बुद्धि वाला मानव जड़मूल से नहीं कर पाता । मैं आपसे पूछता हूँ, मनुष्य जिन-जिन साधनों से सुख प्राप्ति की आशा करता है, क्या उन साधनों के मिलने से उसका दुःख दूर हो जाएगा, उसके जीवन में सुख का सागर लहराने लगेगा ? यह तो आप किसी साधन सम्पन्न मानव से पूछकर देखें तो आपको पता लग जाएगा । एक राजा है, वह भव्य महलों में रहता है । उसके चारों ओर वैभव और विलास की रंगबिरंगी दुनिया है । बाहर की दुनिया का उसे कुछ भी भान न हो, फिर भी कोई न कोई दुःख का कीड़ा उक्त राजा के हृदय को खा रहा होता है । दो लाख रुपये की चमचमाती कार में बैठकर सैर करते हुए किसी धनाढ्य को देखकर दर्शक के दिल में विचार आएगा कि 'ओहो ! कितना सुखी है, कितना भाग्यशाली है ?' मगर उस कार वाले सेठ से पूछो तो पता लगेगा कि उसके दिमाग में कितनी चिन्ताओं का जाल बिछा हुआ है ? उसे चाहे जितना सरस स्वादिष्ट भोजन क्यों न कराओ, सुखकर व रुचिकर नहीं लगेगा । ग्रीस में सोलन नामक एक तत्त्वचिन्तक के पास एक दिन एक दुःखी मनुष्य आया और कहने लगा- " - "ओ सुखी भाई ! मुझे सुख का कोई मंत्र दीजिए, ताकि मैं भी सुखी हो सकूं।" 1 सोलन ने कहा- ' भाई ! मेरे पास सुख का कोई मंत्र नहीं है ।" परन्तु आगन्तुक किसी तरह मानने को तैयार नहीं था। कहने लगा"मैं सुख का मंत्र लिये बिना यहाँ से जाऊँगा नहीं ।" सोलन ने उससे कहा - "तुम किसी सुखी मनुष्य का कोट ले आओ, फिर मैं तुम्हें सुख का मंत्र दे दूंगा ।" आगन्तुक ने कहा- "जी, यह अच्छा कहा ! एक कोट ही तो आपको चाहिए न ? मैं कई सुखियों के कोट ला सकता हूँ । अच्छा, नमस्ते !" तथाकथित दुःखिया एथेंस महानगर में पहुँचा और वहाँ एक विशाल बंगले वाले सेठ के द्वार पर दस्तक दी । अन्दर से आवाज आई
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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