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अमर दीप
लिए भागने वाला व्यक्ति, भाग तो सकता नहीं, उलटे वह दुःख के शिकंजे में अधिकाधिक फँसता जाता है। जैसे किसी को खांसी हो गई तो वह खांसी से तो छुटकारा पाना चाहता है लेकिन दही खाना नहीं छोड़ सकता। दही और खट्टी चीज का मोह नहीं छूटता तो फिर खांसी से छुटकारा कैसे हो सकता है। किसी को बुखार आया तो वह उसे उतारने का विचार करता है। डॉक्टर के पास जाकर दबा लेता है, परन्तु वह यह विचार नहीं करता कि बुखार आने का कारण क्या है । इसका मूल कारण ढूंढ़कर इसे जड़मूल से दूर करने का उपाय वह शायद ही करता है। दुःख को दबा देना ही सुख नहीं है
साधारण मनुष्य जिसे दुःख समझता है, उसे अपनी मनचाही वस्तु से दबा देता है और उसे ही वह सुख मान लेता है। परन्तु वास्तव में वह ऐलोपैथिक दवा की तरह एक रोग को दबाकर दूसरे रोग को उभारने के समान है। वह दुःख को जड़मूल से मिटाने का यथार्थ उपाय नहीं है । भर्तृहरि ने वैराग्य शतक में वर्तमान जनमानस का चित्रण करते.हए कहा है
तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं शीतमधुरं क्षुधातः शाल्यन्नं कवलयति माषादिकलितम् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमालिंगति वधूम्
प्रतीकारं व्याधेः सुख मिति विपर्यस्यति जनः ॥ जब मुख सूखने लगता है, तब साधारण मनुष्य ठंडा और मधुर जल पी लेता है, जब भूख से पीड़ित होता है, तब उड़द की दाल आदि से स्वादिष्ट बनाये हुए शालि चावल का भोजन कर लेता है, कामाग्नि भड़कने पर प्रिया के साथ सहवास कर लेता है । इस प्रकार इन विभिन्न कोटि की व्याधियों के सामान्य प्रतीकार को ही मनुष्य 'यही सुख है', ऐसा मानकर विभ्रम में पड़ता है । आज संसार के अधिकांश लोग इसी भ्रान्ति के शिकार हो रहे हैं। इसी प्रकार सुख की भ्रान्ति को वे सख समझे बैठे हैं । अज्ञानदशाग्रस्त मानव यह मानता है कि मेरे पास प्रचुर धन हो तो मैं मनमाना सुखोपभोग कर सकता हूँ। वह भ्रान्तिवश मानता है कि जगत् में जो कुछ दुःखं है, वह धन के अभाव में है। परन्तु यदि आप किसी लक्ष्मीनन्दन के हृदय की जाँच करें तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि उसके पास सुख के प्रचुर साधन होंगे, परन्तु पुत्र न होने से पुत्र की लालसा में वह झूरता होगा । कदाचित् उसे पुत्र-प्राप्ति हो जाए, तो भी अपनी छोटी-सी जिन्दगी में दुःसाध्य व्याधि से पीड़ित होकर कराहता