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श्रवण का प्रकाश; आचरण में....
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एक जगह गांव के बाहर एक वटवृक्ष के नीचे एक महात्मा प्रतिदिन धर्मोपदेश देते थे । ३०-४० व्यक्ति प्रतिदिन धर्मोपदेश श्रवण करते थे। उपदेश के बीच-बीच में श्रोतागण झम उठते थे । एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर वहाँ आया। वह घोड़े से उतरा, उसने घोड़े को एक ओर बाँधा और महात्माजी का व्याख्यान सुनने लगा। व्याख्यान सुनते-सुनते उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने उसी समय महात्मा से संन्यासदीक्षा ले ली। घोड़ा उसने किसी गरीब को दे दिया। कुछ कपड़े थे, वे उसने गरीबों को बाँट दिये । संन्यास लेकर वह चल पड़ा देश-परदेश में विचरण करने ।
_संन्यासी बना हुआ वह राजकुमार देश-परदेश में घूमता-घूमता बारह वर्ष बाद उसी गाँव के बाहर उसी वटवृक्ष के नीचे पहुंचा, जहाँ उसने संन्यास-दीक्षा ली थी । वहाँ उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वे ही प्रवचन सुनने वाली मूर्तियाँ बैठी थीं। उन्हें मूर्तियां हो कहना चाहिए, जिनमें इतने वर्षों तक सुनने पर भी कोई तब्दीली नहीं आई। वे ही उपदेशक हैं, वे ही सुनने वाले हैं, जो जहाँ के तहाँ हैं । संन्यासी बना हुआ वह राजकुमार सबके हृदय के पास हाथ रखकर टटोलने लगा। उपदेशक महोदय ने पूछा-'यह क्या कर रहे हो ?"
- वह बोला- 'मैं यह देख रहा हूँ कि इनके हृदय में कुछ संवेदनशीलता है या नहीं ? क्योंकि बारह वर्ष बाद भी मैं इन्हें जहाँ के तहाँ देख रहा हूँ, इतना अधिक धर्मोपदेश सुनने पर भी।" . यह घटना इस बात को स्पष्टतया घोषित कर रही है कि वर्षों तक धर्मश्रवण करने पर भी जिस व्यक्ति का जीवन-परिवर्तन नहीं होता, उसका श्रवण करने में लगाया हुआ श्रम और समय प्रायः व्यर्थ जाता है। एक विचारक सन्त ने तीखी आलोचना करते हुए कहा है
सुनते-सुनते बीती सारी, तेरी रे उमरिया। बांध बांध अब तो तू, त्याग तपस्या की गठरिया ॥ (ध्रुव) आठ वर्ष का लगा था सुनने, साठ वर्ष का हो गया। पोते से तू हो गया दादा, परिवर्तन न हुआ। है काली की काली अब तक तेरी यह चदरिया ॥ सुनते० ॥१॥ थे जो काले बाल हो गए, वह बगुले की पांख-से । कानों से तू सुन नहीं सकता, नहीं दीखता आंख से ॥ बड़ा अचम्भा फिर भी तेरा, मन तो है चकरिया ॥ सुनते ॥२॥