________________
२२
अमर दीप
एक बार स्वामी विवेकानन्द जब विदेश में भ्रमण कर रहे थे तो एक विदेशी ने उनसे पूछा-.."स्वामी जी ! भारतवर्ष में गीता, रामायण, त्रिपिटक, वेद, जैनागम आदि अनेक धर्मशास्त्रों के श्रवण से प्रचुर ज्ञान होते हुए भी इतनी दरिद्रता क्यों हैं ? ज्ञान के इतने खजाने जहाँ हों, वहाँ इतनी दीनता-हीनता, अभावग्रस्तता क्यों ?"
स्वामीजी ने उसे युक्तिपूर्वक समझाया-"बन्धु ! किसी के पास बहुत अच्छी बन्दूक हो, बारूद भी हो, मगर यदि उस बन्दूक को चलाने की कला उसके पास न हो तो क्या वह बन्दूक किसी काम आएगी? उसी प्रकार यदि किसी के पास सुना-सुनाया ज्ञान तो बहुत हो, परन्तु उसे आचरण में लाने की कला न हो, तो वह सुना हुआ ज्ञान किस काम का?"
आशय यह है कि सुने-सुनाए ज्ञान की दृष्टि से भारत के पास इतनी सम्पन्नता होते हुए भी आचार की दरिद्रता है, इसी कारण आज भारत में चहँमुखी दरिद्रता छाई हुई है।
यही कारण है कि धर्मश्रवण से उपार्जित ज्ञान-गाम्भीर्य के कारण जो देश विश्व का आध्यात्मिक गुरु कहलाता था, वही भारत आचरण से दूर रहकर न केवल दासता की जंजीरों से वर्षों तक बंधा रहा, इतना ही नहीं, बल्कि वह शनैः-शनैः अपने प्राप्त ज्ञान की गहराइयों को भी खो बैठा, उसका अजित ज्ञान भी विस्मृत हो गया। इस सारी दुर्दशा को मिटाने के लिए प्रत्येक भारतवासी को श्रवण से उपाजित ज्ञान को विकसित एवं पल्लवित करने के लिए आचरण की आग प्रज्वलित करनी होगी। श्रवण से उपाजित ज्ञान सोना है तो आचरण उस सोने को चमकाने-दमकाने वाली आग है । धर्मोपदेशश्रवण : जीवन परिवर्तनकारी हो
भारत के सभी धर्मप्रेमियों को अपना यह रवैया बदलना होगा कि हम धर्मोपदेश सुनें तो टनभर परन्तु आचरण कणभर भी न करें। जीवन की यह दुर्बलता मनुष्य को हीनभावना, दरिद्रता, विचारहीनता या परमुखापेक्षता की ओर ले जाती है । एक विचारक वर्तमान युग का यथार्थ चित्रण करते हुए कहता है
हर ओर देखिये उपदेशों को कैसी झड़ियां लगती हैं। हर बात-बात में पुरखाओं की साक्षी यहाँ निकलती है। गीता, रामायण, सूत्र, ग्रन्थ हर ओर सुनाये जाते हैं। मन्दिर, मस्जिद, स्थानक में कई बार रटाये जाते हैं। पर परिणाम जो देखोगे तो पोलमपोल पलोटा है। सुनने वाले यहाँ बहुत मिले, करने वालों का टोटा है।