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श्रवण : निर्वाण पथ का पहला दीपक १५ वाणी को सुनकर अर्जुनमाली सुधर गया, ,
रक्तपात छोड़ा सारा नशा-सा उतर गया।
क्षय किया कर्मों का मुनि क्षमावान ने ॥ वाणी० ॥ ३ ॥ सुनते ही वाणी मेघमुनि का शिथिल मन, दृढ़ हुआ किया सारा जीवन अर्पण।
जोश में भी होश पाया, उठते तूफान ने ॥ वाणी० ॥४॥ वाणी श्रवण कर अतिमुक्त मुक्त हुए, भवसिन्धु तरने की भावना से युक्त हुए।
जल में तिराई नाव शिशु अनजान ने ॥ वाणी० ॥५॥ सचमुच कवि ने वाणी-श्रवण का अमोघ प्रभाव इस गीत में चित्रित कर दिया है।
.. अनमने श्रवण का भी प्रभाव ये सब उदाहरण तो श्रद्धापूर्वक धर्मश्रवण करने के प्रभाव के हैं। परन्तु यदि कोई व्यक्ति बिना श्रद्धा के, बिना मन के भी किसी सन्त, महात्मा या महापुरुष का धर्म वचन सुन लेता है, उसका भी प्रायः अचूक प्रभाव पड़ता है।
उज्जैन का राजा चन्द्रसिंह अपने भव्य शयनकक्ष से शय्या पर लेटा हआ था। आधी रात को वैभव के गर्ववश स्वप्न में बड़बड़ाने लगा। गर्व ही गर्व में वह मूछों पर ताव देकर उठा और . संस्कृत का एक श्लोक बनाकर बोल उठा
चेतोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूलाः, सद्बान्धवाः प्रणतिगर्भगिरश्च भृत्याः ।
वल्गन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तुरंगाः, .. अर्थात्- मेरे यहाँ मनोहर युवती रानियाँ हैं । अनुकूल मित्र हैं। अच्छे बान्धव हैं, प्रेम के साथ मधुर वचन बोलने वाले नौकर हैं, तथा हाथियों और चपल घोड़ों का झुंड शोभा पा रहा है। . . ..
. राजा चन्द्रसिंह ने श्लोक के तीन चरण तो बना लिये, परन्तु चौथा चरण बहुत कुछ प्रयास करने पर भी नहीं बना पा रहा था। तीनों चरणों का नौ बार उच्चारण करने पर भी चौथा चरण नहीं बना कि एक अज्ञात आवाज आई -
_ 'सम्मोलने नयनयोर्नहि किश्चिदस्ति ।' आँखें मुंद जाने पर ये सब कुछ भी नहीं हैं, अर्थात् - स्वप्नवत् हैं ।
राजा के कानों में यह चौथा चरण पड़ते ही एकदम चौंककर उठा। इधर-उधर देखकर कहा-यह कौन है, जिसने धर्मवचन की तरह चौथा चरण कहकर मेरे गर्व के महल को धराशायी कर दिया।
यह सुनकर अभाव से पीड़ित तथा चोरी करने हेतु छिपा हुआ एक