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________________ श्रवण : निर्वाण पथ का पहला दीपक 1 इसलिये श्रवण - श्रोतव्य से बढ़कर अन्य कोई पवित्र ( शौच ) नहीं है । अत्-ऋषि देवनारद ने यह कहा है । श्रवण करने का उपदेश क्यों ? देवनारद ऋषि के श्रवण करने के उपदेश को जब हम तर्क और लाभ की तराजू पर तौलते हैं तो बिल्कुल सही उतरता है । कारण यह है कि श्रवण करना कान का विषय है और कान वाला जीव ही सुन सकता है । जैन शास्त्रों में समस्त जीवों को पांच जातियों में विभक्त किया है । वे हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । जीव की इन पांच जातियों में से पहली चार जातियों को श्रोत्रेन्द्रिय (कान) प्राप्त नहीं होती । कर्ण सभी इन्द्रियों में अन्तिम है । विकास के चरण की दृष्टि से अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा श्रोत मन के अधिक निकट है । अर्थात् - चेतना के एन्द्रियक विकास में कान अन्तिम पड़ाव है । अतः कर्णेन्द्रिय वाले होने से केवल पंचेन्द्रिय जाति वाले जीव ही श्रवण कर सकते हैं । पंचेन्द्रिय जाति में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों ही प्रकार के जीवों का समावेश होता है । परन्तु क्या आप बता सकते हैं कि ये चारों ही प्रकार के पंचेन्द्रिय जीव- श्रवण, सत्यश्रवण या धर्मश्रवण करने के अधिकारी हो सकते हैं ? माना कि इन चारों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीवों के कान हैं, इसलिये वे सुन सकते हैं, परन्तु क्या वे सभी श्रोतव्य-सुनने योग्य को सुन सकते हैं ? क्या वे सभी सुनकर हित और अहित का श्रेय और प्रेय का, कल्याण और अकल्याण का, पाप और पुण्य का, बन्ध और मोक्ष का तथा आस्रव और संवर का निर्णय कर सकते हैं ? इसीलिए अनुभव की आँच में तपी हुई वाणी में भगवान् महावीर कहते हैं कि पंचेन्द्रियजाति में नरक और तिर्यञ्च अवस्था में जीवों की परवशता के कारण श्रोतव्य का प्रायः श्रवण नहीं हो सकता । बहुत बार नारक या तिर्यञ्च सुनकर हिताहित आदि का निर्णय भी नहीं कर पाते । यद्यपि देव विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होते हैं तथापि उन्हें भी श्रवण - सत्यश्रवण या धर्म-श्रवण का विशेष अवकाश नहीं होता, क्योंकि देवयोनि प्रायः भोगप्रधान होती है । अतः मनुष्य जाति ही श्रवण की वास्तविक अधिकारी है, वही श्रवण करके हिताहित आदि का विशेष -मनन- चिन्तन कर सकती है । यही कारण है कि पावापुरी की अपनी अंतिम देशना में भगवान् महावीर ने धर्मश्रवण को दुर्लभ बताते हुए कहा है माणुस्सं विग्गहं लघुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जंति तवं खंतिमहंसयं ॥ अर्थात् - मनुष्य का शरीर पाकर धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे श्रवण करके मनुष्य तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार कर पाता है ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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