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श्रवण : निर्वाण पथ का पहला दीपक
धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज मैं आपके समक्ष मानव-जीवन और विशेषतः मुमुक्षु मानवजीवन के लिए मोक्ष की साधना में सर्वप्रथम आवश्यक 'धर्म श्रवण' के महत्व पर प्रकाश डालगा।
जैसा कि मैंने आपको बताया-यदि आप किसी अन्धकारमय अनजाने पथ पर चल रहे हों, रास्ता भी साफ न हो तो आप उस समय क्या चाहेंगे ? यही न, कि इस अन्धकारमय पथ पर कोई एक दीपक जला दे, या मोमबत्ती रख दे, कोई मशालधारी मिल जाये तो रास्ता साफ दिखाई देने लगे- हम अपनी यात्रा तय कर लेवें।
मैंने कहा था-ऋषिभाषितसूत्र हमारे लिये अमर दीपक है। इसके अनुभक्पूर्ण वचन प्रकाश की किरणें हैं । इन वचनों के उजाले से हम अपनी यात्रा का पथ अच्छी तरह देख सकते हैं और आराम से चलते हुए अपनी मंजिल पर पहुँच सकते हैं । तो आज हम इसके पहले दीपक-'श्रवण' पर विचार करेंगे।
ऋषिभाषित-सूत्र के प्रथम अध्याय में अर्हत्-ऋषि नारद ने 'श्रोतव्य' अर्थात् सुनना चाहिये, इसी विषय पर विशेष जोर दिया है । उन्होंने श्रवण का महत्व और फल दो गाथाओं में बताया है
सोयन्वमेव वदति, सोयन्वमेव पवदति । जेण समयं जीवे, सव्वदुक्खाण मुच्चति ॥१॥ तम्हा सोयव्वातो परं नथि सोयंति ।।
देवनारदेण अरहता इसिणा बुइयं ॥२॥ सभी जिनेश्वर देव कहते हैं-श्रवण करना चाहिये, वे पुनः पुनः कहते हैं-सुनना चाहिये, जिससे (श्रवण से) जीव स्वमत (स्वधर्म) अथवा समय (स्वपरसिद्धान्त) का ज्ञान प्राप्त करके सभी दुःखों से मुक्त होता है ।