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________________ अमर दीप मेरे प्यारे बन्धुओ ! मनुष्य जीवन के लिये श्रवण और उसमें भी श्रोतव्य (जो सुनना चाहिये उसका ) का श्रवण परम उपलब्धि है। श्रवण मानव के लिए वरदान है, वह मनुष्य को अभीष्ट पथ पर चलने के लिये प्रेरक और मार्ग - दर्शक है । नीतिकार ने स्पष्टतः बताया है ८ श्रोत्रं श्रुतेनैव न तु कुण्डलेन । 'कान की शोभा श्रोतव्य का श्रवण करने में है, कुण्डल से नहीं ।' तीर्थंकरों ने धर्म-श्रवण करने में दक्ष नर-नारियों को 'श्रावक' एवं 'श्राविका' का पद दिया है। श्रावक-श्राविका पद कोई सामान्य शब्दों या संगीत ध्वनियों को सुनने वालों का नहीं है, यह विशिष्ट श्रोताओं के लिए है | श्रवणगुण का आराधक होने से ही गृहस्थ उपासक को 'श्रावक' कहा जाता है । इसलिए मानव जीवन में इस श्रोतव्यं के श्रवण का विशेष महत्व है । देवनारद ऋषि ने तो श्रोतव्य-श्रवण से बढ़कर और किसी भी वस्तु को पवित्र (शौच ) नहीं माना है । श्रोतव्य श्रवण में सर्वाधिक ध्यान दो मानव शरीर में श्रवणेन्द्रिय प्राप्त होने के बावजूद भी अधिकांश मानव इसका दुरुपयोग करते हैं । इन कानों से अश्लील, गन्दे, कामोत्तेजक, कलहवर्द्धक, मोहवर्द्धक बातें एवं सिनेमा की पापवर्द्धक विकथा सुनते हैं,. - जिससे मारकाट, चोरी, कामुकता, अनीति आदि की ही प्रायः चर्चा होती है । इसीलिए ऋषि कहते हैं कि अश्रोतव्य को सुनकर कानों को अपवित्र मत करो, श्रोतव्य को सुनो, जिससे तुम्हारे कान पवित्र हों, तुम्हारा चिन्तन-मनन और आचरण कल्याणमार्ग की ओर प्रवृत्त हो । मैं आपसे पूछता हू कि आप साधु-साध्वियों के मुख से मांगलिक • ( मंगलपाठ ) क्यों श्रवण करते हैं ? जब कोई भी धर्मात्मा व्यक्ति रुग्ण हो जाता है, मरणासन्न स्थिति में होता है, तब आप लोग उसे मंगलपाठ सुनाने की विनति क्यों करते हैं ? इसीलिए कि मंगलपाठ श्रवण करने . से उसके कान पवित्र हों, उसका चिन्तन-मनन या परिणाम शुद्ध हो, वह रुग्ण अवस्था में या मरणासन्न अवस्था में आर्तध्यान करने के बदले धर्म - ध्यान करे, आत्मचिन्तन करे, पंच परमेष्ठी भगवन्तों परम-आत्माओं के आदर्श का चिन्तन-मनन कर सके। इसीलिए करते हैं— जैसा सुनेंगे, वैसा भुनेंगे । इसके विपरीत प्रायः यह देखा जाता है कि कई मनुष्य जो धर्ममहत्त्व से अनभिज्ञ हैं, वे रुग्णावस्था में या मरणासन्न अवस्था में श्रवण के
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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