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अमरदीप
और सम्पत्ति चाहती है; परन्तु वह मिले कैसे ? इसका कभी किसी ने विचार किया है ? वह मिलता है, धर्म में प्रवृत्त होने से तथा पाप से निवृत्त होने से। परन्तु वर्तमान युग के अधिकांश लोगों की मनोवृत्ति इस प्रकार की बन रही है।
धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्म नेच्छन्ति मानवाः ।
फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादराः ।। -मनुष्य धर्म का सुफल पाना चाहते हैं, परन्तु धर्म का आचरण करना नहीं चाहते । साथ ही वे पाप का (दुःख रूपी) फल नहीं पाना चाहते, किन्तु सारे दिन बेखटके आदरपूर्वक पाप करते हैं। बन्धुओ!
कार्य चाहिए, परन्तु उसके कारण का विचार नहीं करते। भला, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? अगर किसी को आम खाने हों और वह नीम का पेड़ बोए तो भला आम के फल उसे कैसे प्राप्त होंगे ? इसी प्रकार अगर किसी को धर्म के मधुर फल चखने हों और पाप के कड़वे फलों से बचना हो तो उसे धर्मरूपी वृक्ष के बीज बोने होंगे। पापरूप वृक्ष के बीजों से दूर रहना होगा।
पाप और साँप दोनों मनुष्य को मृत्यु की गोद में भी सुख-शान्तिं से सोने नहीं देते । साँप तो एक जन्म में ही काट कर मनुष्य को पीड़ा पहंचाती है, परन्तु पाप जन्म-जन्म में मनुष्य को पीड़ा पहुंचाता है। इतना ही नहीं, सुख शान्ति से जीने नहीं देता। पाप से दुर्गति के साथ-साथ दुर्बुद्धि भी मिलती है, जिसके कारण जन्म-जन्मान्तर तक पाप करने की वृत्ति उत्तेजित होती रहती है, धर्म करने की बुद्धि सूझती ही नहीं । पाप का डंक बिच्छू और सर्प से अधिक तीखा और घातक होता है। पाश्चात्य विचारक वॉल्टर स्कॉट कहते हैं
When we think of death, a thousand sins which we baye trodden as worms beneath our feet, rise us against uo as fanning : serpents.
-जब हम मृत्यु का स्मरण करते हैं तो हजारों पाप, जिन्हें हम कीड़ेमकोड़ों की तरह पैरों के नीचे कुचल चुके हैं, हमारे विरुद्ध फणिधर सर्प की भाँति खड़े होते हैं।
पाप के इतने भयंकर परिणाम जानने-समझने पर भी मनुष्य विवेकभ्रष्ट होकर पाप करता है। पाप का प्रारम्भ सुन्दर प्रतीत होता है, किन्तु