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पाप सांप से भी खतरनाक
धर्मप्रेमी श्रोताजनो !
संसार में सबसे अधिक बुद्धिमान् प्राणी मनुष्य है । अधिकांश मनुष्यों से यदि पूछा जाए कि 'आप सुख चाहते हैं या दुःख ?' मैं समझता हूँ, सबका प्रायः एक ही उत्तर होगा - 'हम सुख ही चाहते हैं, दुःख नहीं ।' परन्तु उनसे कहें कि दुःख के कारणभूत पापों को छोड़ दो । हिंसा, झूठ, बेईमानी, विषयकषाय आदि जिन बातों से दुःख होता है उनका त्याग कर दो तो वे कहेंगे - 'महाराज ! यह काम नहीं हो सकता । आप कहें तो हम अमुक संस्था में या आपकी सेवा में अमुक रकम दे सकते हैं, साधन भी जुटा सकते हैं, पर इन ( पापजनक ) बातों को छोड़ना हमारे बस की बात नहीं।' इस पर मुझे दुर्योधन की मनोवृत्ति याद आती है ।
दुर्योधन की राजसभा में बड़े-बड़े धर्मशास्त्री थे, जो धर्म-अधर्म और पुण्य-पाप की बातें खोल खोलकर सुनाते थे । इतिहासज्ञ भी थे, जो पूर्वजों के धर्ममय जीवन का इतिहास सुनाते और उससे प्रेरणा लेने को कहते थे । बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ भी थे, जो धर्मपुनीत राजनीति के सूत्र सुनाते थे । जब उन्होंने दुर्योधन को अनीति और अधर्म से दूर रहने और धर्म में प्रवृत्त होने को कहा तो उसने उत्तर दिया
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः । जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ॥
- मैं जानता हूँ, कि धर्म क्या है ? परन्तु मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं हो पाती। मैं अधर्म और पाप को भी जानता हूं, लेकिन उससे निवृत्त नहीं हो
सकता ।
इसी प्रकार का लाचारी भरा उत्तर आज अधिकांश लोगों के मुह से सुनने को मिलेगा । यद्यपि सारी मानव जाति आज सुख, शान्ति, अमन-न-चैन