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________________ २४६ अमरदीप शेष रही तो कर्मबन्ध से पूर्णतया छुटकारा नहीं होगा, फिर मोक्ष प्राप्त नहीं होगा । एक प्रश्न फिर उठा कि जब तक शरीर है, तब तक कुछ न कुछ सावद्यप्रवृत्ति न चाहते हुए भी हो जाती है । आँख, कान आदि पाँचों इन्द्रियों से देखना-सुनना आदि क्रियाएँ अवश्य होंगी, उनसे दोष लगना भी सम्भव है | अतः साधक सावद्यप्रवृत्ति से यथाशक्ति मन, बुद्धि और इन्द्रियों से दूर रहने के लिए जितेन्द्रिय और स्थितप्रज्ञ बने । साथ ही स्वाध्याय और सुध्यान में रत रहकर संसारवास ( संसार की गतिविधि) का अथवा विश्वव्यवस्था का सही दर्शन करे, साथ ही सावद्यप्रवृत्ति में भी राग-द्वेष-मोह न रखकर उनसे अनासक्त वीतराग होकर रहे तो सावद्यकार्य होते हुए भी पापकर्म का बन्ध न होगा । सावद्यप्रवृत्ति में यही सम्यक् यत्नाचार है, निरवद्यवृत्ति का स्वीकार है । जितनी भी परभावों में प्रवृत्ति है, वह सावद्य है । अतः साधक मनवचन- काय को परभावों में न जाने दे, उन्हें आत्मभाव में स्थिर करे । स्वभावदशा से परे जितनी भी प्रवृत्ति है वह सब परकीय है। आत्मा का स्वभावदशा से हटकर परभाव में जाना ही निश्चय दृष्टि से दुश्चरित्र है, चारित्रदोष है, और वही बन्ध है, सरागवृत्ति है । अतः निश्चयदृष्टि से तत्त्व का निश्चय करना दर्शन है, आत्मा का विनिश्चय करना ज्ञान है और आत्मभाव में स्थित होना चारित्र है । निश्चयदृष्टि के साधक एक ओर से स्वभाव में स्थित हो, समस्त परभावों का त्याग करे, दूसरी ओर से व्यवहाय की दृष्टि से व्रत समिति गुप्तिरूप चारित्र का पालन करे । अर्थात् - अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्तिरूप व्यवहारचारित्र का पालन करे । इस प्रकार अभ्यास करते-करते साधक भवपरम्परा के हेतु को नष्ट करने के लिए बाह्य और आभ्यन्तर समस्त प्रकार की क्रियाओं का अवरोधरूप जिनोक्त परम सम्यक् चारित्र का स्वीकार करे । यों स्वरूपस्थितिप्राप्त सावद्यवृत्ति से सर्वथा विरत होकर जब पूर्णतया निरवद्यवृत्ति में स्थित हो जायेगा, तब उस आत्मा के लिए पुनः सावद्य का सेवन करना उसके कल्प की सीमा से बाहर है । अर्थात् सर्वथा सर्वदा पूर्णतया निरवद्य आत्मस्वरूप की स्थिति प्राप्त कर लेगा । यही मोक्ष की स्थिति है, जो आत्मविद्या के अभ्यास का परम्परागत फल है । बन्धुओ ! प्रत्येक मुमुक्षु साधक को अध्यात्मविद्या के अभ्यास द्वारा अपने कर्मबन्ध मुक्त होकर परमात्मदशा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो मनुष्य भव में ही हो सकता है !
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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