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________________ आत्मविद्या से कर्मविमुक्ति २४५ को तोड़ने का उपाय करता है। शल्य नष्ट करने की साधना से साधक के मन-वचन-काय में एकरूपता आती है। कर्मबन्ध से मुक्त होने का तीसरा उपाय जब तक साधक के मन-वचन-काया जरा-सी भी सावध प्रवृत्ति (दोषयुक्त आचरण) करते रहते हैं, तब तक उसकी मुक्ति नहीं होती । इसी बात को स्पष्ट करने के लिए अर्हतर्षि विदु तीन गाथाओं द्वारा निर्देश करते सावज्जजोगं णिहिलं विदित्ता, तं चेव सम्मं परिजाणिऊणं । तीतस्स णिदाए समुत्थितप्पा सावज्जवुत्ति ण सदहेज्जा ।।७।। सज्झाय-झाणोवगतो जितप्पा संसारवासं बहुधा विदित्ता । सावज्जवुत्तोकरण ठितप्पा, निरवज्जवित्तो उ समाहरेज्जा ।।८।। परकीय-सव्व-सावज्जजोगं, इह अज्ज दुच्चरियं णायरे । अपरिसेस णिरवज्जे ठितस्स, णो कप्पति, पुणरवि सावज्ज सेवित्तए ।।६।। सावद्ययोग को समग्ररूप से जानकर, उसका सम्यक प्रकार से परिज्ञान करके अतीत (सावद्य) की निन्दा के लिए समुत्थित साधक आत्मा अब सावद्यवृत्ति पर श्रद्धा न करे। स्थितात्मा (स्थितप्रज्ञ) एवं जितेन्द्रिय साधक स्वाध्याय और सुध्यान में रत रहकर संसारवास को अनेक प्रकार से जानकर सावधप्रवृत्ति, के कार्य में निरवद्यवृत्ति को स्वीकार करे। समस्त परकीयवृत्ति (परभावों में प्रवृत्ति) सावद्ययोग है। यह जान लेने के बाद साधक दुश्चरित्रता का समग्ररूप से परित्याग करे। निरवद्यरूप से सर्वथा स्थित साधक के लिए पुनः सावद्य-सेवन करना कल्पनीय नहीं। आत्मा में जब तक सावद्ययोग है, तब तक कर्म उससे पृथक् नहीं हो सकेंगे। अतः सर्वप्रथम साधक सावद्ययोग का विवेक करे कि कहाँ-कहाँ किस-किस रूप से सावद्य जीवन में आता है ? तत्पश्चात् ज्ञपरिज्ञा से वस्तुस्वरूप को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसका प्रत्याख्यान करे । इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्याख्यान (त्याग) वर्तमान में हुई सावद्ययोग प्रवृत्ति का ही हो सकता है । अतः कहा कि अतीतकाल में हुई सावध प्रवृत्ति की आलोचना-निन्दना (पश्चात्ताप) और गर्हणा करे। तथा भविष्य में कोई सावधक्रिया न हो जाये, इसके लिए भविष्यकालीन सावद्य प्रवृत्ति के प्रति श्रद्धा न करे, अगर हिंसा आदि सावद्यवृत्ति-प्रवृत्ति में रंचमात्र भी श्रद्धा
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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