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अमरदीप
(२) दुःख का हेतु है, (३) दुःखहान (दुःखों का अन्त) सम्भव है, (२) हानोपाय (दुःखों के अन्त करने का उपाय) है ।
अध्यात्मविद्या में आत्मविकास में बाधक बन्ध और साधक मोक्ष का सर्वप्रथम ज्ञान आवश्यक है। वे कौन-से हेतु हैं, जिनके कारण आत्मा कर्मों से बद्ध होता है ? जब तक उन हेतुओं का ज्ञान नहीं होगा, तब तक आत्मा बन्धन से मुक्त नहीं हो सकेगा। अतः बन्ध क्या है ? वह किस-किस प्रकार से होता है ? उसके कारण कौन-कौन से हैं ? बन्ध से आत्मा मुक्त हो सकता है या नहीं ? हो सकता है, तो किन उपायों से ? फिर तदनुसार आचरण करना यही आत्मविद्या का परम्परागत फल है, इसी से आत्मा कर्मशृङ्खला को तोड़कर बन्धनमुक्त हो सकता है।
आत्मा की रागद्वेषरूप परिणति ही भावकर्मबन्ध. का हेतु है, ' मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पाँच कर्मबन्ध वे हेतु हैं। भावकर्मबन्ध के द्वारा ही द्रव्यकर्म आत्मा से चिपकते हैं। उस अवस्था को द्रव्यबन्ध कहते हैं, जब कर्म और आत्मप्रदेश लोहपिण्ड में अग्निप्रवेशवत् एक दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, यही द्रव्यबन्ध है।
कर्मबन्ध से मुक्त होने का दूसरा उपाय अब अर्हतर्षि विदु कर्मबन्ध से मुक्त होने का दूसरा उपाय बताते हुए कहते हैं
मम्म ससल्लजीवं च, पुरिसं वा मोहघातिणं ।
सल्लुद्धरणजोगं च, जो जाणइ स सल्लहा ॥५॥ अथ त्-िएक ओर-जो मर्म (कर्म के रहस्य) और सशल्य जीव को जानता है, तथा. दूसरी ओर-मोह-रहित पुरुष को जानता है, साथ ही शल्य को नष्ट करने का योग जानता है, वही शल्य को नष्ट कर सकता है।
तात्पर्य यह है कि कर्म मुक्त होने का दूसरा उपाय यह है कि साधक को एक ओर से शल्ययुक्त जीव को देखना और रहस्य जानना आवश्यक है, जिसके अन्ततम की गूढ़ ग्रन्थियाँ दुर्भद्य हैं, जो न अपने आत्मस्वरूप के प्रति स्पष्ट है, न ही परभावों के प्रति । दूसरी ओर वह मोहमुक्त वीतरागपूरुष को देखता है, जिसकी अन्तगुत्थियाँ खूल चकी हैं। ऐसी स्थिति में साधक का सरल निश्छल हृदय पहली सशल्य स्थिति से मुक्त होने के लिए उद्यत हो जाता है, फिर वह उस पूर्णमुक्तस्थिति को देखकर स्वयं बन्धन