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२०८ अमरदीप
जब दोनों लड़के स्कूल से घर पर देर से आये तो वह उन दोनों बच्चों के एक-एक चपत लगा दी । बच्चे भी माँ के दुःखी हुए। घर में रोना-चीखना और अशान्ति छा गई
।
बन्धुओ ! इस प्रकार एक व्यक्ति का दुःख अनेकों व्यक्तियों को दुःख देने का कारण बन जाता है ।
दुःख - आगमन के तीन द्वार
दुःख भी तीन प्रकार का होता है १. स्वकृत २ परकृत और ३ प्राकृतिक । स्वकृत दुःख वे हैं, जो अपने अज्ञान, मूर्खता, मूढ़ता मोह, आसक्ति, तृष्णा, ईर्ष्या, घमंड, क्रोध, घृणा, छल आदि के कारण होते हैं ।
पर बरस पड़ी ।
द्वारा पीटे जाने से
दूसरे परकृत दुःख हैं, जो दूसरे प्राणियों द्वारा मनुष्य को दिये जाते हैं । दूसरे मनुष्यों के द्वारा चोरी, व्यभिचार, विश्वासघात, कृतघ्नता, हिंसा, झूठ, ठगी, बेईमानी, स्वार्थपरता आदि के द्वारा जो दुःख व्यक्ति या व्यक्तियों को मिलता है, वे परकृत दुःख की कोटि में हैं। निर्बल पर सबलों द्वारा अन्याय, अत्याचार, युद्ध, कलह, बदनामी आदि से नाना दुःख मिलते हैं, वे भी परकृत हैं । ये दुःख कभी परिवार द्वारा, कभी समाज और कभी राष्ट्र द्वारा भी दिये जाते हैं ।
प्राकृतिक दुःख वे हैं, जो सर्दी, गर्मी, वर्षा, धूप, भूकम्प, विद्युत्पात आदि प्रकृति प्रदत्त होते हैं । मनुष्य किसी हद तक इनका प्रतीकार कर सकता है | दुःख के आगमन के ये तीन द्वार हैं । ये सब दुःख स्वकृतकर्म-फल हैं
परन्तु तात्त्विक दृष्टि से देखा जाए तो ये दुःख मनुष्य के अपने ही पूर्वकृत कर्मों के फल हैं । परकृत या प्रकृतिप्रदत्त दुःख भी मनुष्य के अपने ही कृतकर्मों के फलस्वरूप आते हैं । अतः अगर मनुष्य सावधान, जागरूक और अप्रमत्त रहे, तो इन दुःखों से छुटकारा पा सकता है । समभावपूर्वक इन दुःखों को सहने से दुःख के हेतुभूतकर्म भी नष्ट हो सकते हैं, व्यक्ति भविष्य में सुखी हो सकता है । वर्तमान में भी वह उन दुःखों को समभाव से सहे तो दुःखवेदन अल्प हो सकता है ।
उदीरणा : शान्त-दुःख की या अशान्त दुःख की ?
अब मधुराज अर्हतषि दूसरे पहलू से इन्हीं प्रश्नों को उठाकर समाधान करते हैं । उनके कथन का भावार्थ यह है
प्रश्न
- दुःखी व्यक्ति शान्त दुःख की उदीरणा करता है, अथवा अशान्त
दुःख को ?
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