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________________ दुःखदायी सुखों से सावधान | २०६ उत्तर - दुःखी व्यक्ति शान्त दुःख की हो उदीरणा करता है, (क्योंकि उदीरित की उदीरणा निरर्थक है ।) शान्त दुःखों से ही अभिभूत व्यक्ति के कर्मों की उदीरणा होती है । अशान्त दुःखी दुःख की उदीरणा नहीं करता, क्योंकि कर्मों की उदीरणा से वह दुःखी हुआ है । इसलिए फिर से उदीरणा का कोई प्रश्न नहीं उठता। शान्त दुःख से तात्पर्य प्रदेश आत्मा के साथ बंधे हुए होते हैं । वे कुछ काल तक निश्चल. पड़े रहते हैं । उन्हें शान्तकर्म कहते हैं । शान्त दुःख और कोई नहीं, शान्त कर्म ही हैं । यहाँ अर्ह तर्षि मधुराज के कथन का तात्पर्य यह है कि जिन के कर्म शान्त और निश्चल अवस्था में पड़े हुए हैं, ऐसा आत्मा भी भविष्य की अपेक्षा से दुःखो है । वह शान्त दुःख (कर्म) की ही उदीरणा करता है अशान्त दुःख की नहीं; क्योंकि निश्चल कर्मों की उदीरणा होती है । जो कर्म चलित हो चुके हैं, उदीरणा में आ चुके हैं, उनकी उदीरणा ही क्या. होगी ? दुःखों से अविमुक्त आत्मा की दशा: कैसी, क्यों और किस कारण से ? इसके आगे मधुराजऋषि नौवें अध्ययन में उक्त कथन की तरह यहाँ पुनः कथन करते हैं ""जो आत्मा दुःख से मुक्त नहीं हैं, उन्हें विविध गतियों और योनियों में जन्म-मरण करना पड़ता है, वहाँ उन्हें हस्तछेदन, पाद-छेदन आदि के रूप में नाना प्रकार के दुःख बार-बार मिलते हैं । कर्मयुक्त जीव को अवश्य ही बार-बार जन्म लेना पड़ता है, और जब जन्म होता है तो उससे सम्बद्ध नाना दुःख मिलते हैं । संसार के समस्त देहधारियों के अनिर्वाण - भवभ्रमण का मूल पाप है । समस्त दुःखों की जड़ पाप हैं । ये जन्म-मरण भी पापमूलंक हैं ॥ १ ॥ संसार में प्राप्त होने वाले नाना दुःखों का मूल भी पूर्वकृत पापकर्म हैं । अतः भिक्षु को चाहिए कि उन पापकर्मों के निरोध के लिए वह सम्यक् पुरुषार्थ करे ||२|| वृक्ष के स्कन्ध का सद्भाव होने पर लता उस पर अवश्य चढ़ेगी । बीज के विकसित होने पर अंकुरों की सम्पदा अवश्य आएगी ||३|| पाप का सद्भाव होने पर निश्चय ही उनसे दुःख उत्पन्न होंगे। मृत्पिण्ड के अभाव में घट आदि की रचना संभव नहीं है । मृत्पिण्ड है इसीलिए घटादि उत्पन्न हो सकते हैं । इसी प्रकार पाप है, इसीलिए दुःख की उत्पत्तिः है ॥ ४ ॥
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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