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________________ दुःखदायी सुखों से सावधान २०७ देना, मनुष्य को क्रूरतापूर्वक मरवाना, घोर कर्मबन्ध का कारण होने से भविष्य में अनेक दुःखों को निमंत्रण देने वाला है। जैसे- रोम जब जल रहा था, तब 'नीरो' फोडल बजाकर खुशी में पागल हो रहा था। ये आठों ही प्रकार के आनन्द दुःखरूप भी हो जाते हैं, इसलिए ये प्रायः दुःखबीज सुख हैं। प्रश्न का तात्पर्य और विश्लेषण अर्हतर्षि मधुराज सर्वप्रथम यही प्रश्न उठाते हैं कि सात-दुःख (दुःखबीज सुख) से अभिभूत (पीड़ित) आत्मा दुःख की उदीरणा करता है या नहीं ? इस प्रश्न का तात्पर्य यह है कि सुख से उत्पन्न होने वाले दुःख से दुःखी आत्मा दूसरे दुख को निमंत्रण देती है या नहीं ? पहले बताये हुए आठों ही प्रकार के सुख दुःख से घुले-मिले हो जाते हैं, ऐसे एक नहीं अनेक व्यक्ति नाना दुखों को निमंत्रण देते हैं। अर्हतर्षि ने बहुवचन में इस प्रश्न का उत्तर दिया है। उपर्युक्त विवेचन से आप समझ गये होंगे कि सुख में आसक्त, प्रमत्त एवं उन्मत्त व्यक्ति अपने लिए कितने कितने दुःखों के बीज बो देते हैं, जिनको भोगना भी अत्यन्त कठिन हो जाता है। ऐसे लोग परिवार, समाज, राष्ट्र आदि के लिए भी दुखदायी बन जाते हैं। अंब दूसरा प्रश्न है -असात-दुःख से अभिभूत आत्मा दुःख की उदीरणा करता है ? वस्तुतः असातारूप दुःख का उदय होने पर व्यक्ति धुर्य खो बैठता है, वह उस समय अपनी आत्मालोचना, आत्मनिन्दना (पश्चात्ताप) गर्हणा, प्रतिक्रमण आदि नहीं करता । प्रायः अज्ञानी व्यक्ति ऐसे समय में निमित्तों पर आक्रोश करने लगता है। अतएव वह अकेला ही नहीं, अनेकों लोग उस दु:ख के साथ दूसरे अनेक दुःखों को निमंत्रण देते हैं। दुःख ग्रस्त व्यक्ति अपने दु:ख से तो दुःखी होते ही हैं, वे और लोगों को, खासकर अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र को भी दुःखी कर देते हैं। एक बार एक व्यक्ति जिस सरकारी महकमे में क्लर्क था, वहाँ उसकी गलती पर उसके ऑफीसर ने डाँटा, तथा नौकरी से खारिज कर देने की धमकी भी दी। इस प्रकार के भयंकर अपमान के दुःख से उसके मन को भयंकर आघात लगा। घर आया। वहाँ पत्नी ने चाय बनाने में जरासी देर कर दी, इस पर उसे पीट डाला और भन्नाता हुआ घर से बाहर निकल गया । इधर उसकी पत्नी का भी दिमाग गर्म हो गया था। वह भी पति के द्वारा जरा-सी बात पर मार-पीट के कारण दुःखी थी। शाम को
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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