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२०४ अमरदीप
मुग्ध हो जाता है कि उसे अगर कोई उन सुखों को छोड़ने को कहे तो उसे बड़ा दुःख होता है । अथवा विषय-सुख जब बरबस छूटने लगते हैं, तब मनुष्य दुःखी होकर रोता- कलपता है, झूरने लगता है, हाय-तौबा मचाने लगता है, विलाप करता है । इस प्रकार के सब सुख 'दुःख-बीज' सुख हैं। ये सुख तो हैं, परन्तु प्राप्त होने पर भी इनके रक्षण की चिन्ता में मनुष्य दुःखी होता है, पहले तो इनके उपार्जन के लिए मनुष्य व्याकुल, दुःखी और संतप्त होता है । दूसरों को सुखी देखकर स्वयं ईर्ष्या के मारे जलता है, कुढ़ता है, दूसरे का सुख उससे देखा नहीं जाता । उसे तथाकथित सुख प्राप्त होने पर भी वह अपने से अधिक सुखी को देखकर मन ही मन बेचैन होता रहता है, अधिक सुख पाने के लिए । प्राप्त सुख पर उसकी इतनी अधिक आसक्ति हो जाती है कि उस सुख में जरा सी कमी आ जाती है तो वह उदास हो जाता है, खिन्न-चित्त होकर चिल्लाता है ।
जिस प्रकार अफीम का नशेबाज आदमी किसी दिन अफीम न मिलने पर या कम मिलने पर बेचैन हो जाता है, अपने पारिवारिकजनों या सेवकों पर क्रुद्ध होता है, उन्हें कोसता है, तड़पता है, आखिरकार उतनी मात्रा में अफीम मिलने पर ही शान्त होता है; उसी प्रकार सुख का नशेबाज भी स्वकल्पित सुख - सामग्री न मिलने पर अपने सम्बन्धियों या नौकरों आदि पर बरस पड़ता है, उन्हें भला-बुरा कहता है । अथवा बुढ़ापा, बीमारी अशक्ति या अंगविकलता, इन्द्रिय-विकलता, पागलपन, बुद्धिमन्दता आदि आने पर जब मनुष्य तथाकथित सुख का उपभोग नहीं कर पाता, तब मन ही मन अत्यन्त दुःखी होता है, मन मसोस कर रह जाता है, अथवा उस कल्पित सुखवर्द्धक सजीव या अजीव पदार्थ का वियोग होने पर व्यय हो जाने पर या उसके कहीं दूर हो जाने या चले जाने पर मनुष्य विलाप करने लगता है । शोक और संताप से अभिभूत होकर वह गहरे दुःखसागर में डूब जाता है । सुख पर आसक्ति के कारण नाना अशुभकर्मों मोहकर्मों का बन्धन होता है, जो भविष्य में घोर दुःख के जनक हैं। ये और इस प्रकार - सभी सुख दुःखोत्पादक हैं । ये दुःखबीज सुख हैं ।
रावण और दुर्योधन आदि के पास प्रचुर वैषयिक सुख थे। वे रातदिन उन सुखों में पागल थे, आसक्त थे और उन सुखों के अर्जित करने में, अर्जित होने पर, अर्जित की रक्षा करने में, उनके व्यय या वियोग होने पर