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________________ दुःखदायी सुखों से सावधान ___ संसार में प्रायः सभी लोग दुःखी हैं। जो सुखी दिखाई देते हैं, वे अन्दर से दुःखी हैं, अथवा सुख में पागल होकर भविष्य के लिए दुःख के बीज बो रहे हैं, अथवा जो दुःखी हैं, वे अज्ञानवश दुष्कर्मफल समभाव से न सहन कर सकने के कारण पुनः-पुनः दुःख के बीजरूप दुष्कर्मबन्ध कर रहे हैं । इस प्रकार संसार में जहाँ देखो वहीं दुःख की घटमाल चल रही है। इस दुःख की परम्परा को कभी समाप्त भी किया जा सकता है अथवा नहीं? यदि समाप्त किया जा सकता है तो कैसे ? इस प्रकार जीवन के ज्वलन्त प्रश्नों को उठाते हुए पन्द्रहवें अध्ययन में मधुराज अर्हषि कहते हैं। प्रश्नोत्तर का भावार्थ इस प्रकार है - प्रश्न--शात (साता) दुःख से अभिभूत आत्मा दुःख की उदीरणा करती है या अशात (असाता) दुःख से अभिभूत दुःखी आत्मा दुःख की उदीरणा करती है ? उत्तर-शातदुःख और अशातदुःख से अभिभूत आत्मा दुःख की उदीरणा नहीं करती, किन्तु शातदुःख से अभिभूत आत्माएँ दुःख की उदीरणा करती हैं तथा अशातदुःख से अभिभूत दुःखी आत्माएँ दुःख की उदीरणा करती हैं। शातदुःख और अशातदुःख से तात्पर्य प्रश्न होता है कि शात-दुःख और अशात-दुःख का क्या अर्थ है ? ये दुःख किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? शात या सात शब्द सुख के अर्थ में प्रयुक्त होता है । जैनजगत में सांता' शब्द बहुत ही प्रचलित है- सुख के अर्थ में । सातावेदनीय और असातावेदनीय नामक वेदनीय कर्म के दो भेद हैं। उनका अर्थ भी क्रमशः सुख और दुःख है। शात या सात (सुख) से उत्पन्न दुःख तब पैदा होता है, जब व्यक्ति अत्यधिक सुख-सामग्री या वैभव या वैषयिक सुख के उन्माद में पागल होता है. वह विषय-सुखों में इतना आसक्त एवं
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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