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________________ शुद्ध-अशुद्ध क्रिया का मापदण्ड १६६ श्रावक के द्वारा स्पष्टीकरण करने पर भी लोगों के दिमाग से वह बात निकली नहीं। इसीलिए अर्हतषि बाहुक ने कहा - युक्त क्रिया भी अयोग्य स्थान में होती है तो वह यथार्थ प्रमाणभूत नहीं मानी जाती। साधना कब पवित्र : कब अपवित्र अब एक अन्य पहलू से इसी तथ्य (अनुयोग) को समझाते हुए कहते हैं ___.." भो समणा माहणा ! गामे अदुवा रणे, अदुवा गामेणोऽवि रणे, अभिणिस्सिए इम लोग, परलोग पणिस्सए, दुहओ वि लोगे अर्णाहते।" अर्था। ग्राम में या अरण्य में अथवा ग्राम और अरण्य के मध्य में रहते हुए श्रमण और ब्राह्मण इस लोक के लिए अभिनिःसृत हैं और परलोक में प्रनिःसृत हैं, तो वे दोनों लोकों में अप्रतिष्ठित होते हैं, क्योंकि दोनों ही लोक अशाश्वत हैं।) . . इसका भावार्थ यह है कि श्रमण और ब्राह्मण कभी गाँव में रहते हैं, तो कभी वन में जाकर साधना करते हैं और कभी इच्छा हुई तो गाँव और वन के बीच में भी साधना करते हैं । साधक कहीं भी रहे, उसका लक्ष्य साध्य में रहना चाहिए। साध्य में लक्ष्य रखेगा, तो वह स्वयं (साधक) भी शुद्ध होगा, साधन भी शुद्ध होगा, तभी वह साधना (क्रिया) लक्ष्यमुखी एवं शुद्ध (पवित्र) रहेगी। अगर साधक इहलोक सम्बन्धी या परलोक सम्बन्धी नामना-कामनाओं या वासनाओं के आश्रित होकर साधना करता है तो साधना पवित्र होते हुए भी अशाश्वत उभयलौकिक भौतिक कामनाओं-भोगवांछाओं से दूषित एवं अपवित्र हो जाती है, अतएव उसका परिणाम भी अच्छा और आत्ममुक्तिपरक नहीं आता। साधक की वह पवित्र साधना भी कामनामूलक दूषित साधन के कारण अशुद्ध, निरुद्देश्य और लक्ष्यभ्रष्ट हो जाती है। भगवान् महावीर ने भी दशवकालिक सूत्र में कहा है-- न इहलोगट्ठयाए आयारमहिज्जिा । न परलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा । न कित्तिवन्न सद्द सिलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा । नन्नत्य आरहंतेहिं हेउहिं आयारमहिछिज्जा ॥ "कोई भी साधक इहलौकिक कामनावश होकर आचार-पालन न करे, न ही वह परलोक की वासना को लक्ष्य में रखकर आचार-पालन करे,
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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