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________________ १६८ अमरदीप होश में लाए । सेठ ने कुछ आवश्यक दवाइयाँ दी, जिससे वह थोड़ी ही देर में स्वस्थ हो गई। सभी लोगों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे । वह हरिजन पति तो देवचन्दभाई का बहुत आभार मान कर उसके चरणों में गिर पड़ा । इतने में कुछ संभ्रान्त व्यक्ति भी वहा आ गये। उन्होंने देवचन्दभाई की कर्तव्यपरायणता और मानवता की प्रशंसा करते हुए पूछा- “सेठ ! आप स्वयं तैरना तो जानते नहीं थे, फिर इस कुए में कूदकर बाई को कैसे बचाते ?" देवचन्दभाई ने बहुत ही नम्र शब्दों में उत्तर दिया- भाइयो ! यद्यपि मैं तैरना नहीं जानता था, परन्तु अपने महाजन पद के अनुरूप एक संकटग्रस्त व्यक्ति का संकट दूर करना मेरा उत्तरदायित्व एवं मानवता के नाते कर्तव्य हो जाता है । मैं बारहों महीने महाजन की मोटी पगड़ी बाँधे फिरू, इसमें मेरे पद की सार्थकता क्या है ? अतएव मैंने तैरना न जानते हुए भी अपनी कमर से बड़ा रस्सा बाँधकर बाई को बाहर निकालने का बीड़ा उठा लिया था। इन युवकों ने मुझे रोक दिया। वरना मैं तो अपने कर्तव्य का पूर्णतया पालन करता। फिर भी मुझे सन्तोष है, अपने पद के दायित्व को निभाने का। यह है-वेश और पद के अनुरूप कर्तव्य-पालन करके अपनी उत्कृष्टता सिद्ध करने का ज्वलन्त उदाहरण ! देवचन्द सेठ के सिर पर उस समय पगड़ी या अन्य वेष नहीं था, फिर भी वे अपने दायित्व एवं कर्त्तव्य का पालन करने के कारण लोगों के और अधिक सम्माननीय एवं आदरणीय बन गये। स्थानविशेष के कारण योग्य क्रिया भी अयोग्य कभी-कभी ऐसा देखा भी जाता है कि जो क्रिया एक स्थान में योग्य रहती है, वही क्रिया किसी अन्य स्थान पर अयोग्य भी हो जाती है । जैसेएक जैन श्रावक है । वह सुबह-सुबह ग्वाले के यहाँ से लोटे में दूध लेकर जा रहा है। तभी वहाँ के नामी कलवार (मद्य विक्रेता) ने उक्त श्रावक को आवश्यक परामर्श के लिए दूकान पर बिठा लिया। सेठ ने कहा-'मुझं धारोष्ण दूध पीना है । देर हो जाने से दूध खराब हो जायेगा। मैं यहीं अभी दूध पी लेता हूं, फिर तुमसे बात करूंगा।" यों कहकर उक्त श्रावक ने वहीं दूध पी लिया। जिस समय श्रावक दूध पी रहा था, उस समय उसके कुछ परिचित श्रावकों ने उसे देख लिया। कलवार के यहाँ बैठकर दूध पीने के कारण भी लोगों के मन में शंका बैठ गई कि यह श्रावक शराब पीता है। अभीअभी हमने देखा है। लोग श्रावक की निन्दा और भर्त्सना करने लगे।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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