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________________ २०० अमरदीप और न कीर्ति, प्रशंसा, प्रसिद्धि या प्रशस्ति आदि कामनाओं के वश आचार'पालन करे, किन्तु आर्हता ( वीतरागता ) - प्राप्ति के उद्देश्य से ही आचार"पालन करे ।" - अकाम और निष्काम साधना से फल में अन्तर नामना - कामनायुक्त योगयुक्तयोगियों का अयुक्तयोग है । इस को अर्हतषि बाहुक अपने ही उदाहरण द्वारा सिद्ध करते हैं "अकाम बहुए मतेति अकामए चरए तवं अकामए कालगए नरयं पत्त े । अकाम पव्वइए, अकामते चरते तवं अकामते कालगते सिद्धि पत्ते अकामए ।" अर्थात् - पहले कामनारहित ( अकामक) बाहुक ने अकाम तप किया । अकाम-मरण से मर कर ( पूर्व कर्मवश) नरक में गया । ( वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके मनुष्य लोक में जन्म लेकर) निष्काम ( अकाम ) दीक्षा ग्रहण की। फिर निष्काम तपश्चरण किया। इस प्रकार सर्वत्र निष्काम साधना करके कालधर्म प्राप्त होने पर ( जन्मजरामृत्युरहित) निष्काम सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करेगा । शब्द एक : भावनाभेद से अर्थ में अन्तर प्रस्तुत अर्हषि बाहुक के आत्म कथन में 'अकाम' साधना शब्द एक ही है, किन्तु उसी को एक स्थान पर नरक-प्राप्ति का हेतु बताया गया है, दूसरे स्थान पर उसी अकाम - साधना को मुक्ति का कारण बतलाया गया है । इस अन्तर के पीछे मुख्य कारण है - भावना, दृष्टि अथवा उद्देश्य का अन्तर । जिस आत्मा को विवेक - दृष्टि प्राप्त नहीं हुई है, जिसे अपने साध्य बोध नहीं है, जहाँ आत्मा अन्तःप्रेरणा के बिना किसी बाहरी दबावविशेष से प्रेरित होकर निरुद्देश्य तप आदि साधना करता है, उसे जैन परिभाषा में 'अकामनिर्जरा' कहा गया है । ऐसी अकाम साधना आत्मा को लक्ष्य पर नहीं पहुंचा सकती। जैसे कि भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था । सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोपमा । कामेव पत्थमाणा, अकामा जंति दोग्गइं ॥ काम-भोग शल्य हैं, ये विष हैं तथा आशीविष सर्प के समान हैं । जो काम भोगों की अभिलाषा करते हैं, वे अकाम-मृत्यु से मर कर दुर्गति में जाते हैं ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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