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जीवन की सुन्दरता १८१ उस जनपद की, अन्याय पीड़ित जनता की तथा नमुचि की नास्तिकता के कारण अन्य उत्पीड़ित मानवेतर प्राणियों की भी रक्षा की।
जिला कर जीओ' के सिद्धान्त का परिपालक षट्कायरक्षक साधु अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए, अपने अपमान या कष्ट का बदला लेने के लिए दूसरे मानवों की हानि का जरा-सा विचार भी नहीं कर सकता। न ही वह अपने से भिन्न समुदाय, मत, पंथ, विचारधारा या आचारधारा के लोगों को हैरान कर सकता है, न ही नीचा दिखाने या बदनाम करने का प्रयत्न कर सकता है। वह व्यक्ति, सम्प्रदाय, जाति-कौम, प्रान्त, राष्ट्र एवं समाज से ऊपर उठकर सारे विश्व के प्रति मैत्री भावना को, सर्वहित चिन्तन, सर्व-जीव रक्षण सर्वोदय को साकार करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह स्वप्न में भी किसी का अहित, अकल्याण या बुरा चिन्तन नहीं कर सकता। अपने हित के लिए दूसरों के हित या जोवन के साथ वह खिलवाड़ नहीं कर सकता।
• अपने जीवन को टिकाने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं-आहारपानी, वस्त्र, मकान आदि को प्राप्त करने में संयम से चलता है, यतना के साथ सभी प्रवृत्तियाँ करता है, अहिंसा का उत्कृष्ट आदर्श उपस्थित करता है। इसके लिए वह त्याग, नियम एवं मौलिक मर्यादाओं को लेकर चलता है । उसका अपने देह, गेह, वस्त्रादि उपकरणों पर या समुदाय, जाति-कौम, वर्ग या प्रान्तादि पर भी मोह ममत्व नहीं रहता। ऐसे महाश्रमण की झांकी प्रस्तुत करते हुए एक कवि कहता है
विश्व के कल्याण हित सर्वस्व को जो त्याग देता। हार की माला गले में डाल, जय का दान देता। जो अकिंचन बन स्वयं ही बांट देता मुकुट सारे । है श्रमण वह, विश्व सारा टिक रहा जिसके सहारे ॥१॥ जो गरल पीकर हृदय में प्रेम की धारा बहाता । शत्रु को भी ढूढ़ कर जो जोड़ता है स्नेह-नाता। कण्टकाकुल मार्ग में पदत्राण बनकर जो उबारे ॥है श्रमण०॥२॥ जो पराश्रय से निरन्तर दूर रहना जानता है । मित्र मौ अरि आत्म को तज, जो न पर को मानता है । जागता रहता निरन्तर, जो महावत के उजारे ॥है धमण०॥३॥ भेद औ वैषम्य को, जिसने निरा मिथ्यात्व माना । सब जनों सब प्राणियों में एक आत्मा को पिछाना । विश्वमैत्री और समता के लगाता नित्य नारे ॥ है श्रमण ॥४॥