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१८२ अमरदीप - यह है सत्यं और शिवं के साथ सुन्दरम् से अनुप्राणित साधु जीवन ।। सौन्दर्यमय गृहस्थ जीवन के मूलमन्त्र
___ अब जरा गृहस्थ जीवन के विषय में भी अर्हषि भयाली के विचारों को सुन लीजिए । वे कहते हैं
आताणाए उ सव्वेसि गिहिबूहणतारए।
संसार वास-संताणं कहं मे हंतुमिच्छसि ? ॥१॥ दूसरा अभिभूत (पराजित) होने वाला व्यक्ति संसार में रहे हुए गृहस्थ कहे जाने वाले तारक-श्रावक से पूछता है- तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो ?
गृहस्थ श्रावक साधुओं के जितनी उच्चकोटि की अहिंसा, सत्य आदि का पालन तो नहीं कर सकता, फिर भी अहिंसा आदि के विषय में उसकी एक मर्यादा-सीमा है, उसमें रहकर वह चलता है। जैसे श्रावकं के लिए स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत भगवान ने बताया है। इसका मतलब हैवह द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक की संकल्पजा हिंसा से सर्वथा विरत होता है, आरम्भजा हिंसा में भी वह अनर्थक, अनावश्यक, एवं अमर्यादित हिंसा से दूर रहेगा। पाँच प्रकार के स्थावर जीवों (एकेन्द्रिय प्राणियों) की वह अनाप शनाप या अमर्यादित हिंसा नहीं करेगा उसमें भी विवेक एवं सयम से काम लेगा।
प्रस्तुत गाथा में अह तषि भयाली ने गृहस्थ श्रावकों के लिए जीओ और जीने दो' का सिद्धान्त संवाद के रूप में अभिव्यक्त कर दिया है। किसी श्रावक ने अपनी मर्यादा का उल्लंघन करके किसी अन्य गृहस्थ को दबायासताया, तब वह उक्त श्रावक से जबाव तलब करता है-तुम्हारी मर्यादाओं, श्रावकव्रत के दायरे का अतिक्रमण करके तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो ? मारने का अर्थ यहाँ प्राणों से वियुक्त कर देना ही नहीं है, अपितु दबाना, सताना, पीड़ित करना, हानि पहुँचाना, हैरान, परेशान करना, दुःख और सकट में डालना, चोट पहुंचाना, मार-पीट करना, भूखे-प्यासे मारना, श्वास बन्द करना, गुलाम बनाकर कष्ट देना, शोषण करना, संघर्ष करके किसी के विकास को रोक देना, आजीविका (रोजी-रोटी) में अन्तराय डालना, संतप्त करना, डराना-धमकाना, धक्का-मुक्की करना, अंगभंग करना इत्यादि भी है।