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________________ जीवन की सुन्दरता १७६ है, तथा जनता पर कर बढ़ा दिया है, जिससे राज्य की आय अनेक गुनी बढ़ गई है। आय के अन्य कई साधन भी ढूंढ़ लिये हैं । --- अन्त में उठे मगध के प्रान्तीय शासक । वे नम्रतापूर्वक बोलेमहाराज ! मैं क्या निवेदन करू ? मेरे प्रान्त ने प्रतिवर्ष के आधे से भी • कम धन इस वर्ष केन्द्रीय राज्यकोष में भेजा है। मैंने प्रजा पर कर कम किये हैं । राज-सेवकों को कुछ अधिक सुविधाएँ दी गई हैं। जिसके फलस्वरूप वे अधिक उत्साह, प्रामाणिकता एवं परिश्रम के साथ अपना कर्तव्य अदा कर रहे हैं । प्रान्त में सर्वत्र धर्मशालाएँ और कुएँ बनवाये गये हैं । निःशुल्क चिकित्सालय खोले गये हैं । प्रत्येक कस्बे और बड़े गाँव में पाठशालाएँ खोली गई हैं । सम्राट् सिंहासन से उठे और घोषणा की- मुझे प्रजा के रक्त से रंजित स्वर्णराशि नहीं चाहिए । प्रजा को सुख-सुविधाएँ मिले, यही मेरी हार्दिक इच्छा है । यह सब कहने के बाद सम्राट् अशोक ने मगध के प्रान्तीय शासक को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हुए कहा - " इस वर्ष का पुरस्कार मगध के शासक को दिया जाय ।" वास्तव में जो शासक प्रजा पर अधिक कर लगाकर अथवा शासनसेवकों का वेतन घटाकर शोषण और उत्पीड़न करता है, अथवा अपनी विजय के लिए दूसरे निर्दोष देश पर हमला करके उसे पराजित करता है, और अपनी राज्य सीमा बढ़ाता है, उस शासक या व्यक्ति का जीवन कभी सौन्दर्ययुक्त (लावण्यमय) नहीं हो सकता । जीवन का वास्तविक सौन्दर्य अपने से दुर्बलों, अशिक्षितों, पीड़ितों या निर्धनों को उत्पीड़ित, शोषित, पददलित या पराजित करने में नहीं, वह है- उन्हें ऊपर उठाने, विपत्ति में उनकी सहायता करने, उनके दुःख में सहभागी बनकर उनके आँसू पोंछने में। तभी 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' या 'मिसी मे सव्वभूएसु' का सिद्धान्त क्रियान्वित होता है । वही विजयी जीवन लावण्यमय, कान्तिमय हो उठता है । मध्ययुग में पश्चिमी देशों में एक सिद्धान्त प्रचलित हुआ था जिसका नारा था— 'Survival of the fittest' योग्यतम व्यक्ति ही जीने का अधिकारी है । योग्यतम का भावार्थ था - जो शक्तिशाली हो, फिर वह चाहे तन से हो, धन से हो, सत्ता से हो या फिर आतंक से हो। ऐसे लोग ही उस युग में प्रचलित गुलामी प्रथा ( दास-दासी क्रय-विक्रय) के प्रबल समर्थक थे । इसीलिए अर्हतर्षि भयाली के आगे के कथन का तात्पर्य है कि 'मैं अपनी
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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