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अमरदीप
. दिलों को जीतना ही वास्तविक विजय है । अर्हतर्षि भयाली ने तेरहवें अध्ययन में किसी के द्वारा लावण्य सम्बन्धी प्रश्न पूछे जाने पर इसी आशय का उत्तर दिया है-
प्रश्न - किमत्थं णत्थि लावण्णं ताए ?
उत्तर - मेत्तज्जेण भयालिणा अरहता इसिणा बुइतं ।
णोऽहं खलु भो अप्पणो विमोयणट्ठाए परं अभिभविस्सामि । माणं माणं से परे अभिभूयमाणे ममं चेव अहिताए भविस्सति । प्रश्न- तुम्हारा लावण्य - ( जीवन में सौन्दर्य ) क्यों नहीं है ? उत्तर- इसके उत्तर में मैत्रेय भयाली अर्हतर्षि ने कहामैं अपनी विमुक्ति के लिए दूसरे को पराजित नहीं करूँगा । नहीं,
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नहीं; वह पराजित व्यक्ति मेरे लिए ही अहितकर्त्ता बनेगा ।"
ऐसा जीवन सौन्दर्यमय नहीं है
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अर्हता के कहने का आशय यह है कि विश्व में अधिकांश व्यक्ति अपने जीवन को पुष्ट, लावण्यमय, सुखमय एवं विजयी बनाने के लिए दूसरों को पराजित करते हैं, सताते- दबाते और कुचलते हैं, पीड़ित करते रहते हैं । ऐसे व्यक्ति अपने विकास, अपने अभ्युदय और अपने प्रेय के लिए दूसरों का विनाश करते हैं, दूसरों को गुलाम बनाकर उनके साथ मनमाना कठोर व्यवहार करते हैं । उन मान्धाताओं की मुस्कान दूसरों को परेशान करके टिकती है । ऐसा जीवन सौन्दर्यमय नहीं है ।
इसे समझने के लिए एक ऐतिहासिक घटना लीजिए-
प्रियदर्शी सम्राट् अशोक के जन्मदिवस का महोत्सव था । इस अवसर पर सभी प्रान्तों के शासक आए थे। सम्राट् की ओर से घोषणा की गई'सर्वश्र ेष्ठ शासक को आज पुरस्कार दिया जाएगा।' इस पर उत्तरी सीमा के शासक ने कहा - प्रादेशिक शासन की आय मैंने तीन गुनी बढ़ा दी है ।
दक्षिण के प्रान्ताधीश ने कहा - इस वर्ष मेरे प्रान्त की ओर से राज्यकोष में गतवर्ष से दुगुना सोना अर्पित किया गया है ।
पूर्वी प्रान्तों के शासक ने कहा- पूर्वी सीमान्त के उपद्रवियों का मैंने "सिर तोड़ दिया है। अब वे कदापि सिर उठाने का साहस नहीं कर सकेंगे ।
पश्चिमी प्रदेश के अधिकारी बोले- मैंने सेवकों का वेतन घटा दिया