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________________ आध्यात्मिक विकास का राजमार्ग १५६ अध्यात्मवाद की परिभाषा उपाध्याय श्री यशोविजय जी ने अध्यात्म की परिभाषा इस प्रकार की है 'आत्मानमधिकृत्य या प्रवर्तते क्रिया तदध्यात्मम् ।' आत्मा को केन्द्र में रखकर जो क्रिया या प्रवृत्ति की जाए, वह अध्यात्म है। इसका फलितार्थ है तप, जप, संयम, ध्यान, महाव्रत, यम, नियम, प्रभुभक्ति, त्याग, प्रत्याख्यान, शास्त्रज्ञान या अध्ययन, धर्माचरण या धर्म किया आत्मा को लक्ष्य में रखकर, अथवा कर्मक्षय को लक्ष्य में रखकर की जाए। प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति में वीतरागप्रभु की आज्ञा का ध्यान रखा जाए। जो क्रिया राग, द्वेष, मोह, कषाय, वैर-विरोध, ईर्ष्या, मायाचार, दम्भ आदि बढ़ाने वाली हो, केवल रूढ़िपालन, प्रदर्शन या दिखावा हो, उसके पीछे अन्तर् में श्रद्धा न हो, वहाँ अध्यात्मवाद नहीं है। ____ अध्यात्मवादी ज्ञान, तप, जाति, कुल और आजीविका आदि का मद नहीं करता । आत्मा के उद्धार के लिए साधक को एक मात्र आत्मरमणता, अथवा अध्यात्म ज्ञान में तल्लीनता करनी चाहिए। ___ अध्यात्मवादी अहर्निश यही यत्न करता है कि "मेरी आत्मा पापकर्म से लिप्त न हो, आत्मा पर लगे हुए कर्मों का नाश हो, मेरी आत्मा में निहित ज्ञानादि गुण प्रकट हों। क्षणिक या विनाशी वस्तु के लिए अविनाशी शाश्वत आत्मा को कभी न भूलं । मेरे विचार, वचन और व्यवहार सदैव अध्यात्म रस से सींचे हुए रहें । अध्यात्मवाद मेरे जीवन में आनन्द-परमानन्द पैदा करे । मैं विशुद्ध आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करू।" __जब जोवन में अध्यात्मवाद आता है .........." एक महामुनि थे। उन्हें लौकिक ज्ञान तो बहुत थोड़ा था; किन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में अभ्यस्त थे । अध्यात्म ज्ञान को उन्होंने जीवन में रमा लिया था। एक बार उनके शरीर को केसर की महाव्याधि ने घेर लिया। भक्तों ने कहा- "इसका ऑपरेशन करा देते हैं।" । मुनि ने कहा-"किसलिए? केंसर तो शरीर को हुआ है। मैं तो सच्चिदानन्द रूप आत्मा हूँ। मैं तो निरोगी हूँ, अजर-अमर हूँ। तुम मेरी चिन्ता न करो। मैं तो अपने आत्मभाव में लीन हैं। सड़ना-गलना, आदि तो शरीर के धर्म हैं।"
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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