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अमर दीप
आनन्दघनजी ने जवाब दिया- " जिसमें आत्मा नहीं है, वह मुझे नहीं चाहिए | आत्मा के अतिरिक्त, सभी वस्तुएँ तुच्छ हैं ।"
शिष्य ने कहा - "महाराज ! अगर मैं यह भेंट वापस ले जाऊँगा तो आपके मित्र का अपमान माना जाएगा। इसलिए आप इस भेंट को स्वीकार कर लीजिए ।"
आनन्दघनजी ने कहा- 'इसे यहाँ रख दो ।' और उसी समय कूपी हाथ में लेकर पास में पड़ी एक शिला पर पटकी और फोड़ डाली । आनन्दघनजी ने एक पहाड़ पर जाकर लघुशंका की । तुरन्त ही वह सारा पहाड़ सोने का हो गया । आनन्दघनजी ने आगन्तुक शिष्य से कहा—“ले उठा इसे, लेजा !" शिष्य तो यह देखकर हक्का-बक्का हो गया । उसने सोचा- मेरे गुरु इतने तक ही पहुँचे हैं, जबकि इनके मूत्र में इतना चमत्कार है । फिर भी ये यहीं तक अटके नहीं है । इस लब्धि का इनके मन में कोई महत्व नहीं है । सचमुच महात्मा आनन्दघनजी के मन में पौद्गलिक ऋद्धि-सिद्धि को कुछ भी कीमत नहीं थीं। वे तो आत्मिक ऋषिसिद्धि की शोध में थे ।
श्रमण को आत्म ज्ञान में पूरी निष्ठा होनी चाहिए। दूसरी बातें उसके लिए गौण होनी चाहिए ।
अध्यात्म ज्ञानी और भौतिक ज्ञानी में अन्तर
यद्यपि आज साधुवर्ग के समक्ष अनेक आकर्षण हैं, भौतिक और लौकिक ज्ञान प्राप्त करने के । इसके लिए तो प्राय: विद्यालय और महाविद्यालय खुलते हैं, परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान का महाविद्यालय तो साधु जीवन में ही खुलता है न ? आत्मज्ञानी और भौतिकज्ञानी के प्रकाश में इतना अन्तर है जितना बिजली के तथा मोमबत्ती के प्रकाश में। बिजली का प्रकाश सिर्फ प्रकाश ही देता है, जबकि मोमबत्ती जलकर प्रकाश के साथ धुआँ भी करती है । भौतिकज्ञानी के ज्ञान में भौतिक लालसाओं का धुआं उठता रहता है जबकि आत्मज्ञानी का प्रकाश कामना रहित आलोक मात्र ही होता है ।
अध्यात्मज्ञानी स्व और पर दोनों को जानता है— मैं कौन हूँ ? मेरा स्वभाव क्या है ? मेरे निजगुण (आत्मा के गुण) कौन-कौन से हैं ? जड़ का स्वभाव क्या है ? जड़ के गुण कौन-कौन से हैं ? इत्यादि । जबकि भौतिक या लौकिक ज्ञानी या वैज्ञानिक जड़ पदार्थों के विभिन्न प्रयोगों को ही जान सकता है किन्तु अपने आपको नहीं पहचान पाता ।