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________________ १६० अमर दीप एक दिन स्वभावस्थ दशा में मुनि ने देह का त्याग किया। यह था जीता-जागता अध्यात्मवाद ! एक सद्गृहस्थ थे। उनके पास करोड़ों की सम्पत्ति थी। वे धर्म कार्यों में भी काफी व्यय करते थे। एक दिन सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई । स्नेहीजन, स्वजन और मित्र, सभी किनाराकसी कर गए। उनसे एक मुनि ने पूछा"भाई ! तुम पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है।' वे स्वभाव दशा में स्वस्थ मन से बोले-नहीं जी, महाराज! मुझे जरा भी दुःख नहीं है। मैंने अपने आपको कभी सम्पत्ति के कारण से सुखी माना ही नहीं था। मैं जानता और मानता था कि सम्पत्ति चंचल है, चाहे जब चली जा सकती है। वह चली गई । नश्वर थी, नष्ट हो गई। मेरी अपनी आत्म-गुणों की सम्पत्ति तो अखूट और अविनाशी है, यह तो आज भी है, भविष्य में भी रहेगी । मैं तो प्रसन्न हूँ महाराज!" यह था साक्षात् अध्यात्मवाद का उदाहरण । एक दम्पत्ति का जवान पुत्र अचानक गुजर गया । पुत्र की अचानक मृत्यु के समाचार ज्यों-ज्यों स्नेहीजनों को मिलने लगे । वे आ-आकर आश्वासन देने लगे। पिता ने कहा- हम मानते ही नहीं हैं कि हमारा पुत्र मर गया है। अलबत्ता, वह हमसे दूर चला गया है। परन्तु आखिर तो जो धरोहर होती है उसे लौटाना ही पड़ता है।" माता बोली- 'पुत्र आखिर तो आत्मा ही है न ! आत्मा तो अमर है । हम नहीं मानते कि आत्मा भी मरती है। फिर मृत्यु का दुःख कैसा? अलबत्ता वह हमसे दूर चला गया है।' यह था ( Practical) अध्यात्मवाद, जो जीवन में, रग-रग में उतर गया था। आत्मरक्षक अध्यात्मज्ञानी का जीवन : परीषहों को आँधियों में अध्यात्मज्ञानी पर चाहे जितने संकट, कष्ट, परीषह और दुःख आएँ, वह मुस्काराता रहता है। वह मानता है कि शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। शरीर एक दिन नष्ट होने वाला है, इस पर पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कारण संकट, कष्ट एवं परीषह आते हैं, उन कर्मों को काटना है तो उस समय समभाव और धैर्य से उन्हें सह लेना चाहिए, हाय-हाय करके तो अज्ञानी सहता है, वह पूर्वकृत कर्मों को काट नहीं पाता, नये कर्म और बांध लेता है। इसी तथ्य का समर्थन भगवान् नेमिनाथ के शासन कालीन अर्हतषि मंखलीपुत्र करते हैं, जिसका भाव यह है
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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