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१४८ अमर दीप पोटिला को वैराग्य वासित दृढ़श्रद्धा और दीक्षा - पोट्टिला को अपने वैराग्य को सुदृढ़ बनाने हेतु, सुव्रता नाम की एक साध्वी जी का सत्संग मिला। उसका हठीला हृदय कोमल बना । पोट्टिला ने जब साध्वी जी से वशीकरणमंत्र' पति को वश में करने हेतु देने की प्रार्थना की तो साध्वी जी ने उसे प्रतिबोध देते हुए कहा.. 'बहन ! वशीकरण विद्या मलिन विद्या है। इस मंत्र से पति के वश हो जाने पर भी तू अपनी कामवासना की पूर्ति ही करना चाहेगी न ? पर इससे तू अपनी महंगी आत्म-स्वतंत्रता बेच देगी । तू जिसे प्रेम समझती है वह वासना का विकृत रूप है। अगर निर्मल प्रेम ही चाहती है, तो तुझे संयम तप और ब्रह्मचर्य को अपनाना चाहिए जिससे तु पति नहीं, सारे विश्व को अपनी ओर खींच सकेगी । उस विशुद्ध प्रेम में सारा जगत् समा जाएगा, तेरा जीवन भी सार्थक होगा।
_ 'स्त्री जो संतान लालसा के कारण काम वासना के गड्ढे में गिरती है, उससे तो तू ऊपर आ चुकी है, तेरे एक संतान हो चुकी है। अतः अब पुराने अध्यास से मुक्त होकर विशुद्ध विश्व प्रेम का विचार कर ।'
__ साध्वीजी का उपदेश सुनकर पोट्टिला के हृदय में निहित वासना का काँटा निकल गया । उसे अपनी आत्मशक्ति और आत्मसमृद्धि का भान हुआ । अन्तर में निर्ममता जागी, चेहरे पर प्रसन्नता की लाली दौड़ उठी। उसने अपने उद्गार निकाले-'महासतीजी ! मैंने थोड़े-से सत्संग में इतना ज्ञान प्राप्त किया, अतः जीवन पर्यन्त आपके साथ रहने की इच्छा है। अब मुझे भोग या सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रही। अब मेरी इच्छा आपके पास दीक्षित होकर जीवन विताने की है। अतः आप मुझे साध्वी-दीक्षा दें।'
साध्वीजी ने कहा- 'बहन! तेरी इच्छा प्रशंसनीय है । संयम का मार्ग ही आत्मा के लिए सुखकर है। परन्तु दीक्षा तुम्हें तभी दी जा सकती है, जब तुम्हें अपने पति की आज्ञा मिल जाए।'
पोट्टिला ने साध्वीजी की बात स्वीकार की और पति के पास आ कर दीक्षा लेने के अपने हार्दिक भाव व्यक्त किये । तेतलिपुत्र से उसे दीक्षा की कठोरता समझाकर रोकने की बहुत कोशिश की। परन्तु पोट्टिला को वैराग्य का पक्का रंग लग चुका था। अतः उसने कहा मैं अब विषय के कीचड़ में फंसना नहीं चाहती। चाहे जितना कठोर पथ हो, मुझे अपने ध्येय की ओर तीव्र गति से जाना है । मेरी तो इच्छा है कि मुझे आप दीक्षा की आज्ञा दें और आप भी इसी आत्मश्रेय के पथ पर चलं ।'