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________________ मिथ्या श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा १४७ अपने पालक पिता-महामात्य तेतलिपुत्र के प्रति पूज्यभाव रखता था। उसने कृतज्ञता प्रदर्शित करने हेतु अपनी राज्यसम्पदा में से कुछ अंश उसे दे दिया। पिता की तरह सम्मान-बहुमान प्रदर्शित करता था। राजा द्वारा इतना सम्मान किये जाने से प्रजा में भी राजपिता जितना ही उसका बहुमान होने लगा। तेतलिपुत्र को प्रभुता और प्रतिष्ठा : पतन की कारणभूत जहाँ प्रसिद्धि, प्रभुता और अधिकार मिल जाते हैं, वहाँ उन्हें न पचा सकने के कारण भयंकर गर्व और अहंकार मनुष्य को घेर लेते हैं। महामात्य तेतलिपुत्र का भी धीरे-धीरे पतन होने लगा। तेतलिपुत्र की उक्त स्थिति ईर्ष्या करने योग्य थी, क्योंकि इतना सम्मान, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, सत्ता, धन-वैभव एवं सामर्थ्य तथा नैतिक गुण उसके पास थे ही। परन्तु वह इन्हें पचा न सका। फलतः अंदर ही अंदर पतन होने लगा । जैसे टी. वी. के रोगी का शरीर दवा खाने तथा पौष्टिक भोजन लेने से बाहर से तो बहुत स्वस्थ और सुन्दर भरावदार लगता है, किन्तु अन्दर से खोखला हो जाता है, वैसे ही तेतलिपुत्र अमात्य का होने लगा। तेतलिपुत्र धीरे-धीरे पतन के मार्ग पर आगे बढ़ने लगा। पोट्टिला के जिस रूप पर वह मुग्ध था, धीरे-धीरे उसके प्रति लगाव मन्द होने लगा। पोट्टिला के एक संतान होने पर शरीर-सौष्ठव एवं सौन्दर्य फीका होते ही रूपलोभी तेतलिपुत्र का अनुराग एकदम फीका पड़ने लगा। उसके प्रति अमात्य का व्यवहार रूखा-सूखा और नीरस हो गया । वह भी समझने लगी कि मेरे प्रति पति का प्रेम अब नहीं रहा। पोट्टिला के हृदय में वैराग्य का अंकुर पोटिला अब दिनों दिन चिन्तित, भ्रान्त और दिक्मूढ़-सी रहने लगी। पति के रूखे व्यवहार के कारण उसके मन पर भी प्रभाव पड़ने लगा। शरीर सूखता गया, चेहरा फीका पड़ गया, तेजस्विता भी नहीं रही, वह दिनोंदिन दुर्बल होने लगी। उसका यौवन पुष्प कुम्हलाने लगा। उसने अब तक कामराग को ही पति प्रेम मान रखा था, किन्तु अब उसकी आँखें खुल गईं। उसे इस स्वार्थभरे संसार से विरक्ति हो गई, परन्तु अन्दर ही अन्दर मन में पति को मना कर अनुकूल बनाने की अनुरक्ति थी। विरक्ति और अनुरक्ति का द्वन्द्वयुद्ध उसके हृदय क्षेत्र में हो रहा था। आखिर यही हुआ। इस द्वन्द्वयुद्ध में अन्त में वैराग्य की जीत हुई।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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