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________________ १४६ अमर दीप ज्योतिषी, वैद्य, रसायनशास्त्री आदि बुलवा लिये, परन्तु कोई भी राजा को स्वस्थ न कर सका । होता भी कहां से, जिसके दर्शनमोह एवं चारित्र - मोह कर्म का प्रबल उदय हो, उसे न तो देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धाभक्ति एवं सच्ची समझ, निष्ठा एवं लगन हो सकती है, और न ही अहिंसादि धर्मों के पालन में रुचि, तड़पन या तीव्रता आ सकती है । वह हाय, हाय करते ही, आर्त- रौद्र ध्यान से पीड़ित दशा में इस संसार से कूच करके दुर्गति का मेहमान बनता है। हुआ भी यही, जब राजा को यह प्रतीति हो गई कि अब तो मुझे यहाँ से विदा होना ही पड़ेगा, तब उसके हृदय में भयंकर पीड़ा एवं वेदना होने लगी कि - "हाय ! मैंने थोड़े से जीने के लिए कितना अनर्थ कर ढाला ! कितने अत्याचार, दुराचार और अनाचार सेवन किये ! अपने ही पुत्रों को मैंने अपने हाथों से अंगविकल किये। इस पाप से मैं किस भव में छूटूंगा । हे पतितपावन ! मेरा उद्धार कैसे होगा ? मैंने अपना कोई उत्तराधिकारी भी नहीं रहने दिया ! अब मेरे जमाये हुए सुरक्षित राज्य को शत्रुराजा शीघ्र ही हथिया लेगा ।" इस प्रकार मरण शया में पड़ा पड़ा राजा विलाप पश्चात्ताप एवं आर्तनाद करने लगा । पलभर भी उसे चैन न था । इसी अशान्त और सन्तप्त दशा में ही वह परलोकगामी हो गया । देव-गुरु-धर्म के प्रति अश्रद्धा, आशातना एवं अत्याचार का दुष्फल राजा को मिल चुका । अमात्य ने राजा की उत्तरक्रियाएँ कीं । प्रजाजनों के हृदय में राजा के प्रति सद्भाव नहीं था, इसलिए उसके वियोग का दुःख किसी के मन में नहीं था । सभी ने सुख की सांस ली । महामात्य तलिपुत्र द्वारा राजकुमार का राज्याभिषेक तेतलिपुत्र अमात्य ने प्रजाजनों की एक विशाल सभा बुलाई । उसमें महारानी तथा महामात्य ने राजपुत्र के गुप्त के रूप से पालन-पोषण का रहस्योद्घाटन किया । महामात्य द्वारा की गई इस उद्घोषणा को सुन कर जनता में प्रसन्नता छा गई । राजकुमार के हावभाव, स्वभाव और लक्षण देखकर लोगों को राजपुत्र होने की प्रत्यक्ष प्रतीति हो गई । सबने तेतलिपुत्र की कृतज्ञता और वफादारी की अत्यन्त प्रशंसा की तथा आभार प्रदर्शित किया । राज्य के हित के लिए इतना बड़ा त्याग किया, उसके लिए प्रजाजनों ने महामात्य पर भारी अभिनन्दन की वर्षा की । सुशिक्षित कुमार कनकध्वज का राजसभा में बहुत धूमधाम से राज्याभिषेक किया गया । राजगद्दी पर बैठने के पश्चात् कनकध्वज राजा भी
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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