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________________ मिथ्या श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा १४६ पोटिला का सहमा हृदय-परिवर्तन देखकर तेतलिपुत्र को आश्चर्य मिश्रित खेद हुआ। उसने कहा- 'मैं गृहस्थवास का त्याग तो नहीं स्वीकार सकता, किन्तु तुम्हारे इस श्रेय मार्ग में मेरी पूर्ण सहानुभूति है। परन्तु मेरी एक शर्त है कि भविष्य में तू चाहे जिस उच्च-स्थान में जाए, मुझे तुम्हें सद्बोध देने हेतु अवश्य आना है । पोट्टिला ने पति की यह बात मुक्तमन से स्वीकार की। अतः पति को आज्ञा प्राप्त करके पोट्टिला ने गृहस्थाश्रम का त्याग कर सुव्रता साध्वी से जी भागवती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा लेने के बाद साध्वी पोट्टिला ने भी तप, संयम, संतोष, क्षमा पवित्रता, त्याग आदि उत्तम आत्मिक गुणों से अपने आपको सुसज्जित किया । अन्तिम समय निकट आया तब समाधिमरण पूर्वक इहलोक से विदा होकर देवलोक में गई। सच है, जिसके जीवन में सच्चा ज्ञान, सच्ची श्रद्धा और सम्यग्तप-संयम हों, उसके लिए देवगति दुर्लभ नहीं है। पोटिलादेव द्वारा प्रतिबोध का प्रयास ___पोट्टिला की आत्मा देवलोक में रहते हुए अपने साथी का पतन देख कर कांप उठी । अपने दिये हुए वचन के अनुसार पोट्टिला देव ने तेतलिपुत्र को जगाने का दृढ़ निश्चय किया। उसने संत के रूप में आकर अपना परिचय दिया, प्रेरणा दी-इस मोहजाल को छोड़ने की। परन्तु तेतलिपुत्र ने इस जंजाल से निकलने की अपनी असमर्थता प्रकट की । दर्शनमोहनीय की आंधी कितनी विचित्र है, जो वस्तुतत्व पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होने देती ! तेतलीपुत्र के मन में मेरा राज्य, मेरी प्रतिष्ठा, इस प्रकार 'मेरे पन' का माया जाल गहरा अड्डा जमाए हुए था। सर्वत्र अपमानित और आत्म हत्या का विफल प्रयास पोटिलादेव ने सोचा–दर्शनमोह के मूल पर प्रहार किये बिना इसकी आँख नहीं खुलेगी। अतः दैवीशक्ति से पोटिलादेव ने ऐसा चामत्कारिक प्रयोग किया कि तेतलिपुत्र का पहले जहां सर्वत्र सम्मान था, आदर-सत्कार था, वहाँ सर्वत्र अपमान और अनादर ही मिलने लगा। उसकी नई पत्नी उसकी बात नहीं सुनती थी। न ही पुत्र उसकी आज्ञा का पालन करता था। राजसभा में जाते समय रास्ते में किसी ने जरा भी आदर न किया। राजसभा में प्रवेश किया, तब भी न कोई सम्मान में खड़ा हुआ और न किसी ने उसे प्रणाम किया जो व्यक्ति सम्यग्दृष्टि तथा समभाव की भूमिका पर न हो, वह जरा-सा सम्मान मिलते ही फूल जाता है और जरा-सा अपमान होते ही
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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