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अमर दीप
विशेष और अशुभ का बन्ध अल्प होता है । शुभाशुभ अध्यवसार्यों के द्वारा सत्कार्य करने पर शुभाशुभ रूप मिश्रित कर्मों का बन्ध होता है । यद्यपि मन्दकषायी आत्मा देवगति का बन्ध करता है, किन्तु वहाँ भी वृत्तिजन्य दुःख तो मौजूद है ही । सम्यक्त्वी आत्मा नरक में भी शान्ति का अनुभव करता है। जैसे नरक-प्राप्त श्रेणिक का जीव क्षायिक सम्यक्त्वी होने के कारण शान्तिपूर्वक कष्टों का वेदन करता है । वहाँ अशुभ के साथ शुभ का उदय है, किन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान युक्त आत्मा अशुभ को छोड़कर शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर प्रवृत्त होता है। अतः अशुभकर्म उदय में आने पर साधक को सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानपूर्वक समभाव से उक्त दुःख रूप कर्मफल को भोगना चाहिए। ऐसा करके वह अशुभ कर्मों के प्रभाव को समाप्त कर देता है, अपने पर नहीं आने देता। .
छठी सावधानी- यह है कि बुद्धिमान् साधक को यह नहीं सोचना चाहिए कि अभी तो बहुत आयुष्य है, इसलिए बाद में कर्मशत्रुओं को क्षय कर लूंगा। ऐसा प्रमाद बिलकुल न करे, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र (दया) को सतत समभावपूर्वक पालन करने का पुरुषार्थ करे। वह कर्मशत्रु के साथ संघर्ष करने में एक क्षण का भी विलम्ब न करे, किसी की प्रतीक्षा न करे। मोक्ष-प्राप्ति के विविध उपाय . अर्हतर्षि महाकाश्यप ने अब मोक्षतत्व को समझाने के लिए कुछ तथ्य प्रस्तुत किये हैं :
णेहवत्तिक्खए दीवो जहा चयति संतति । आयाण-बंध-रोहंमि, तहप्पा भवसंतइं ॥१६॥ दोसादाणे णिरुद्धम्मि सम्म सत्थाणसारिणा। पुवाउत्ते य विज्जाए, खयं वाही णियच्छती ॥२०॥ मज्जं दोसा विसं वही गहावेसो अणं अरी। धणं धम्मं च जीवाणं, विण्णेयं धुवमेव तं ॥२१॥ कम्मायाणेऽवरुद्धम्मि सम्म मग्गाणसारिणा।
पूव्वा उत्तेय णिज्जिण्णे खयं दक्खं णियच्छती ॥२२॥ अर्थात्-जैसे दीपक में तेल (स्नेह) और बत्ती (बाट) के क्षय होने पर वह दीपकलिका रूप संतति का क्षय कर देता है, वैसे ही आत्मा आदान (आस्रव) और बन्ध का अवरोध कर देने पर भवपरम्परा को समाप्त कर देता है।