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________________ जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय १३१ कर्म धीरे-धीरे क्षय हो जाता है। ऐसे कर्म बंधने के बाद उनका अबाधाकाल (विपाकवेदन से पूर्व का काल) पूर्ण होने बाद शनैः शनैः उदय में आकर क्षीण हो जाते हैं। किन्तु किसी फलासक्ति को लेकर निदान के रूप में किया गया कर्म अवश्य ही उदय में आता है । अभिप्राय यह है कि मुमुक्षु साधक को चाहिए कि वह निकाचित रूप से, निदान करके किसी भी कर्म को न बांधे। अगर प्रमादवश या सामान्य रागवश कोई कर्म बंध गया है तो उसे उन-उन उपायों से क्षय करे या अशुभ को शुभ में अथवा गाढबन्ध को शिथिलबन्ध के रूप में परिवर्तन करे । तीसरी सावधानी-यह है कि कई साधक इस भ्रम में रहते हैं, मैं साधना काल में तो कोई विशेष कर्म अजित नहीं कर रहा हूँ, फिर मुझे तप आदि करने की क्या आवश्यकता है ? इसी भ्रमनिवारण के लिए अर्हतर्षि कहते हैं - सावधान रहो ! यदि तुम्हारे अन्य कर्मों की स्थिति तुम्हारे आयुष्य कर्म की स्थिति से कई गुना अधिक है, तथा वे कर्म भी इसी भव के नहीं अनेक पूर्वजन्मों के हैं, साथ ही वे पाप कर्म भी उत्कट हैं, घोरतम हैं, तो उन सबके लिए तुम्हें दुष्कर उत्कट तप करना अनिवार्य है । अन्यथा तुम्हें अपने कर्मों को सर्वथा क्षय करने के लिए कई जन्म लेने पड़ेंगे। भगवान महावीर ने देखा कि मेरे कर्म तो बहुत अधिक हैं, उनकी स्थिति भी आयुष्य से कई गुना अधिक है । अतः उन्होंने शीघ्र कर्मक्षय करने के लिए १२।। वर्ष की घोर तपस्या की, अनार्यदेश में जाकर घोर परीषहों को समभाव से सहन किया । चौथी सावधानी-यह है कि बुद्धिमान युक्तयोगी साधक पाप कर्मों को जब नष्ट करने लगता है, तब साथ-साथ पूण्य कर्मों की वृद्धि के कारण उसे अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । कई विद्याएँ (सिद्धियाँ),आम!षधि आदि लब्धियाँ, दृष्टिवाद के वस्तुपूर्व तक का ज्ञान, शिक्षा शास्त्र तथा गति के आधार पर इतिहास विज्ञता आदि की उपलब्धि प्राप्त हो जाती है । अगर साधक उनका दुरुपयोग करता है तो वह पापकर्मों को क्षय करने के बजाय नये पापकर्मों को और बांध लेता है । अतः साधक को इन लब्धियों, सिद्धियों आदि में आसक्त नहीं होना चाहिए और न ही इनका दुरुपयोग करना चाहिए। अव्वल तो इनका प्रयोग ही नहीं करना चाहिए। इन चमत्कारों के प्रदर्शन और प्रयोग में पड़ने पर कदाचित् प्रसिद्धि और यश कीर्ति बढ़ सकती है, परन्तु अहंकारवृद्धि, आसक्ति, साधना में विक्षेप, आदि के कारण नये पापकर्मों का बंध होने की संभावना है । अतः इन लब्धियों से सावधान रहे। पाँचवीं सावधानी यह है कि कषाय की मन्द अवस्था में शुभ का बन्ध
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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