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अमर दीप
-जा सकता है और सर्वथा क्षय भी किया जा सकता है । परन्तु यदि कर्म निकाचित रूप से बँधे हुए हैं, तो उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हो सकता, उन्हें तो उसी रूप में भोगना ही पड़ेगा। हाँ, भोगते समय यदि समभाव रखे, अपनी आत्मनिन्दा करते हुए भोगे, निमित्तों को न कोसे तो नये कर्म नहीं बंधते और निकाचित रूप से बंधे हुए कर्म भी क्षय हो जाते हैं ।
सूइयों के दृष्टान्त से इस तथ्य को समझा रहा हूँ । सुइयों का एक जगह ढेर कर दिया जाए तो उन्हें अलग-अलग करने में कुछ भी देर या दिक्कत नहीं होती, इसी प्रकार स्पृष्टरूप से बंधे हुए कर्मों को मिच्छामि दुक्कडं आदि देकर झटपट आत्मा से अलग किया जा सकता है। परन्तु सूइयों के उस ढेर को एक सूत के डोरे से बांध दिया जाए तो उसे खोलने और अलग-अलग करने में कुछ देर लगती है उसी प्रकार बद्धरूप से बंधे हुए कर्मों को आत्मा से अलग करने में थोड़ी देर लगती है, अर्थात् - आलोचना, प्रतिक्रमण आदि से वे अलग हो सकते हैं । इसी प्रकार सूइयों के उस ढेर को लोहे के तार से कसकर बांध दिया जाए तो उसे खोलने और सूइयों को अलग-अलग करने में पहले से अधिक देर लगती है, इसी प्रकार निधत्त रूप से बंधे हुए कर्मों को आत्मा से प्रायश्चित्त, तप आदि द्वारा अलग करने art अधिक समय लगता है । मगर सूइयों के उस ढेर को आग में तपा कर तथा घन से पीट कर एकमेक कर दिया जाए, लोहपिण्ड बना दिया जाए तो उन सूइयों को अलग-अलग करना असम्भव होता है, इसी प्रकार तीव्रकषायवश निकाचित रूप से बंधे हुए कर्मों में स्थितिघात, रसघात एवं परिवर्तन कुछ भी सम्भव नहीं है, आत्मा से उनका पृथक्करण प्रायश्चित्त, तप आदि द्वारा हो नहीं सकता, उन्हें तो भोगना ही पड़ेगा ।
जैसे स्कन्दकमुनि ने काचरे का छिलका उतारते समय तीव्र रूप से निकांचित कर्मबंध कर लिया था, उसका फल उन्हें चमड़ी उधड़वाने के रूप में भोगना पड़ा ।
निष्कर्ष यह है कि स्पृष्टं, बद्ध एवं विधत्तरूप रूप में बंधे हुए कर्मों में उपक्रम (बंधे हुए कर्मों को तोड़ना), उत्कर (कर्म की स्थिति आदि में वृद्धि ) संक्षोभ (कर्मों की स्थिति आदि में संक्षेप - हानि) और तप आदि के द्वारा क्षय भी हो सकता है। उनमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण आदि के रूप में परिवर्तन भी हो सकता है -1
जैसे अंजली में भरा हुआ पानी प्रतिक्षण एक-एक बूँद गिर कर धीरेसमाप्त होता जाता है, वैसे ही स्पृष्ट, बद्ध और निधत्त रूप में बंधा हुआ