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जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय
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-यदि देहधारियों की स्थिति (आयु कर्म की अवधि) थोड़ी है और पाप कर्म बहुत हैं, साथ ही वे दुष्कर भी हैं, तथा पहले भी पाप कर्म बाँधे गये हैं तो उनके क्षय करने के लिए दुष्कर तप की आवश्यकता है।
-बुद्धिमान युक्तयोगी साधक पाप कर्मों को नष्ट कर देता है, परन्तु आंशिक रूप में कर्मक्षय होने पर कभी-कभी अनेक लब्धियाँ (ऋद्धियाँ) प्राप्त हो जाती हैं।
-तप और संयम में प्रवृत्त (प्रयुक्त) आत्मा कर्मों का विमर्दन (नाश) करने पर विद्याएँ, औषधियों के विज्ञान की गहराई में उतर जाता है, तथा शिक्षा शास्त्र, वस्तु पूर्वशास्त्र अथवा वास्तु शास्त्र एवं गतिविज्ञान में प्रवीण हो जाता है ।
-जो लब्धियां बन्धनरूप होती हैं उन्हीं लब्धियों को पाकर युक्तात्मा दु.ख का क्षय भी कर लेता है। जैसे मिश्रित पुष्प ग्रहण हो जाने पर कुशल माली विष-पुष्प छोड़कर अच्छे फूलों का ग्रहण कर लेता है । इसी प्रकार योग्य साधक लब्धियों के दुरुपयोग को रोककर उनका सदुपयोग करके दुःख-क्षय कर लेता है।
-मेधावी साधक दुर्लभ सम्यक्त्व और दया (चारित्र) को सम्यक् रूप से पाकर प्रमाद न करे। जैसे शत्रु का मर्म (गुप्त रहस्य) जान लेने पर विपक्षी योद्धा जरा भी विलम्ब नहीं करता।
अर्हतर्षि महाकाश्यप ने यहाँ कर्मों को क्षय करने में जिन सावधानियों का निर्देश किया है, वे इस प्रकार हैं- पहली सावधानी-यह है कि जैसे छोटा-सा अंकुर एक दिन विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, इसी प्रकार छोटा-सा अशुभ (पाप) कर्म भी साधक की लापरवाही से एक दिन बहुत वृद्धिंगत हो जाता है । अतएव छोटे-से अशुभकर्म को उत्पन्न होते ही झटपट नष्ट कर दो।
दूसरी सावधानी-यह है कि यह मत समझो कि जो अशुभ कर्म बंध गया है, उसका फल उसी रूप में भोगना पड़ेगा, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हो सकता; किन्तु अगर कम का बन्ध स्पृष्ट, बद्ध या निधत्त रूप में हुआ है, तो उसे मिच्छामि दुक्कडं (पश्चात्ताप), (आलोचना, निन्दना, गर्हणा), प्रतिक्रमण, क्षमापना एवं प्रायश्चित्त के द्वारा भोग कर शीघ्र ही क्षय किया जा सकता है । गाढ़ बन्धन को शिथिल बन्धन के रूप में, या जप, तप, शुभ ध्यान, भावना, अनुप्रेक्षा, व्रत, नियम, संवर, सामायिक, परीषहजय, चारित्रपालन आदि के द्वारा अशुभ को शुभ में भी परिणत किया