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________________ १२० अमर दीप यहाँ देश का अर्थ है आंशिक रूप से और सर्व का अभिप्राय पूर्ण संवर से है। ये दोनों भेद विरति संवर के हैं। श्रावक अथवा देशव्रती को देशसंवर होता है और साधु अथवा सर्वविरत श्रमण को सर्वसंवर । कहीं-कहीं चारित्र की अपेक्षा से संवर के ये दो भेद मानकर यथाख्यात चारित्री को सर्वसंवर माना गया है तथा शेष चारित्र वालों को देश-संवर । किन्तु यह विचार सर्वजनमान्य नहीं है। . . ___ अतः यही मानना उचित है कि साधु को सर्वसंवर होता है और श्रावक को देशसंवर। इसके अतिरिक्त संवर के दो भेद और होते हैं-(१) भावसंवर और (२) द्रव्यसंवर । भावसंवर में साधक अपने आत्म-परिणामों में आस्रव के भाव नहीं आने देता, भोगों के, राग-द्वष अथवा कषाय जनित परिस्पन्दन को शांत-उपशांत करता है और द्रव्यसंवर में वह पुद्गल कर्मों के आगमन को रोकता है। ___ जैसा कि आप सभी जानते हैं, हमारा जैनदर्शन द्रव्य और भाव इन दो अपेक्षाओं पर अधिक बल देता है, प्रत्येक तत्व का विचार इन दोनों ही अपेक्षाओं से करता है । अतः संवर के द्रव्य और भाव-ये दो भेद ही प्रमुख हैं । इन्हीं में अन्य सभी भेद गभित हो जाते हैं। एक बात और है ! वह भी आप समझ लें। द्रव्य और भाव-ये दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, इनमें अविनाभावी सम्बन्ध है । ऐसा नहीं हो सकता कि द्रव्य-संवर हो और भावसंवर न हो अथवा भाव-संवर हो और द्रव्यसंवर न हो । दोनों ही होंगे। __ अब आप अपने ध्यान को मुख्य रूप से अपने आत्मिक भावों पर रखिए, भाव-संवर करिए, द्रव्य-संवर अपने आप हो जायेगा। यह भी ध्यान रखने की बात है कि संवर ही मोक्ष का कारण है । इसीलिए मुनिजन आपको संवर की प्रेरणा देते हैं और आप हिंसा आदि आस्रवों को रोककर संवर करते भी हैं । ____ अब आपके मन में एक प्रश्न उठ रहा होगा कि अन्यत्र तो निर्जरा से मोक्ष-प्राप्ति मानी गई है। क्योंकि निर्जरा से कर्मों का क्षय होता है और सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने पर ही आत्मा की मुक्ति हो पाती है। तो, आपका यह विचार ठीक है। यह बिल्कुल सत्य है कि निर्जरा ही मोक्ष का साक्षात् कारण है। किन्तु निर्जरा के भी कई प्रकार हैं और
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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