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जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय १२१ सभी निर्जरा मोक्ष का कारण नहीं होती। मैं अब आपको निर्जरा के विभिन्न भेद बताता हैं, जिससे आप समझ लें कि कौन-सी निर्जरा मोक्ष प्राप्ति में सहायक है।
निर्जरा के विविध भेद __संवर के बाद निर्जरा तत्व का क्रम है । इस क्रम के अनुसार ही अर्हतर्षि महाकाश्यप ने संवर के पश्चात् निर्जरा तत्व का वर्णन किया है।
निर्जरा का सीधा-सा अर्थ है-कर्म-परमाणुओं का रसहीन होकर झड़ जाना, आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाना। लेकिन इस झड़ने के कई प्रकार हैं। इन्हीं के आधार पर निर्जरा के भी कई भेद हो गये हैं । इन सभी भेदों को समझ लेना आवश्यक है।
शास्त्रों में सकाम और अकाम-निर्जरा के ये दो भेद बताये हैं । जो व्रत आदि उपक्रम से होती है वह सकाम निर्जरा है, इसी को सोपक्रम निर्जरा कहते हैं और जो जीवों के कर्मविपाक से स्वतः ही होती रहती है, वह अकाम अथवा निरुपक्रम निर्जरा कहलाती है। अकाम निर्जरा, चारों गतियों के जीवों के होती है किन्तु सकाम निर्जरा सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद ही होती है।
___ अकाम निर्जरा के अन्य नाम भी हैं--अबुद्धिपूर्वक निर्जरा, प्वकालप्राप्त निर्जरा, विपाकजा निर्जरा, यथाकाल निर्जरा आदि।
इसी प्रकार सकाम निर्जरा के भी कई नाम शास्त्रों में गिनाये गये हैं -कुशलमूल निर्जरा, तपःकृत निर्जरा, उपक्रमकृत निर्जरा, अविपाकजा . निर्जरा आदि-आदि।
यहाँ अर्हतर्षि ने निर्जरा के तीन प्रकार गिनाए हैं। (१) प्रथम विपाकजा और अविपाकजा, (२) द्वितीय, निरुपक्रम और सोपक्रम। इन दोनों प्रकारों का विवेचन तो मैं आपके सामने कर ही चुका हूँ। लेकिन उन्होंने तीसरे प्रकार का नाम दिया है-(३)सोपादाना और निरादाना निर्जरा।
___ यद्यपि यह नाम नया है, पहले आपके सुनने में शायद न आया हो किन्तु इसका भाव वही है जो सकाम और अकाम निर्जरा का है। फिर भी मैं कुछ स्पष्टीकरण कर दू
आदान कहते हैं ग्रहण करने को। यहाँ तत्व-चर्चा में आदान से अभिप्राय है आत्मा द्वारा कर्म-परमाणुओं को ग्रहण करना-यानी आस्रव-कर्मों का आना।
अभिप्राय यह है कि जो निर्जरा, आस्रवपूर्वक होती है यानी निर्जरा