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________________ जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय ११७ इसी प्रकार मुमुक्षु साधक पर भी जब असत्कल्पनाओं, अशुभविचारों, कषायों, आवेगों का आक्रमण होता है तो वह भी अपनी चित्तवृत्तियों को समेट लेता है, बहिमुखी भावधारा को अन्तर्मुखी बना लेता है, आत्मा के सद्गुणों ज्ञान-दर्शन-चारित्र, अहिंसा, समता आदि में लीन कर देता है, राग-द्वेष से परे हट जाता है और इस प्रकार वह कषाय आदि आस्रवों के आक्रमण को विफल कर देता है । हिंसा आदि पापों को-आस्रवों को अपने आत्मिक राज्य में प्रवेश नहीं करने देता। इसी तथ्य को तत्वार्थसूत्र में इन शब्दों में कहा गया है आस्रवनिरोधो सवरः । आस्रव-यानी मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को-उपलक्षण से हिंसादि पाँचों पापों, स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियों के विषयों, कषायों आदि में मन-वचन काया–तीनों योगों को न जाने देना संवर है। - इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि संवर द्वारा कर्मों का आगमन रोक दिया जाता है । कर्मों के आगमन को रोकने की क्रिया-आत्मिक प्रवृत्ति का ही नाम संवर है। . अभी मैंने आपके सामने उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा कही थी। उसमें एक विशाल तालाब के रूपक से बताया गया है कि जलागम को निरुद्ध कर देना चाहिए। इसमें मैंने मोरियों के दृष्टांत से विषय को स्पष्ट किया था। मोरियों को रोककर जल के प्रवाह को अवरुद्ध करने का दृष्टान्त दिया था। बन्धुओ! वह जलागमन के द्वार अथवा मोरियां ही जल के आगमन के प्रमुख कारण हैं । विशाल तालाब को खाली करने के लिए, पहले इन द्वारों को रोकना आवश्यक है। अब इस दृष्टान्त को आध्यात्मिक क्षेत्र में घटाइये। आत्मा ही वह विशाल तालाब है। उसमें कर्मरूपी जल भरा हुआ है। कर्मरूपी जल उन मोरियों से निरंतर आ रहा है। ये मोरियाँ ही आस्रव हैं। अब अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त करने के लिए मुमुक्षु साधक सबसे पहले इन मोरियों रूप आस्रव को रोकता है। दूसरे शब्दों में संवर करता है। संवर के भेद बन्धुओ ! अब आप संवर के भेद भी समझ लीजिए। जैसा कि मैंने अभी आपको बताया-आस्रव का निरोध ही संवर है । - इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि जितने कारण आस्रव के हैं,
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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