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________________ ११६ अमर दीप क्कम ) निर्जरा भी होती है और निरुपक्रम भी । किन्तु सोपक्रम निर्जरा तपस्या के द्वारा होती है । - संसारी जीव के सतत कर्मों का बंधन होता है तथा निर्जरा भी होती है । किन्तु विशेष कर्म निर्जरा तप द्वारा ही होती है । अर्थात् मोक्षप्राप्ति में सहायक कर्म - निर्जरा का प्रमुख हेतु तप है । प्रस्तुत तीन गाथाओं में अर्हतर्षि महाकाश्यप ने साधक को संबर और निर्जरा की प्रेरणा दी है । वे कहते हैं कि मुमुक्षु साधक बार-बार संवर करे यानी अशुभ संकल्पों, असत् विचारों से दूर रहे । संवर के बाद वे निर्जरा की प्रेरणा देते हैं । साथ ही निर्जरा के कई भेद भी बताते हैं । इस भेद बताने का कारण यह है कि संसारी जीव को निर्जरा भी सतत होती रहती है; किन्तु वह मोक्ष प्राप्ति में सहायक नहीं होती । इसलिए साधक को विशेष निर्जरा - तपोजन्य निर्जरा में प्रवृत्ति करनी चाहिए । बन्धुओ ! संवर और निर्जरा का विषय थोड़ा गहन है, किन्तु मोक्षप्राप्ति का प्रमुख कारण होने से महत्वपूर्ण भी बहुत है। साथ ही इसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि सामान्य संसारी जीव को भी सतत निर्जरा होती रहती है । अतः मोक्ष प्राप्ति में सहायक निर्जरा तथा सामान्य निर्जरा का भेद भी प्रकार समझ लेना आवश्यक है । साथ ही यह भी आवश्यक है कि किस प्रकार निर्जरा करता हुआ, कर्मबंध को रोकता हुआ, कर्मों के निबिड़ बंधन को तोड़ता हुआ आत्मा क्रमशः मोक्ष की ओर गति प्रगति करता है, अपनी उन्नति करता है, इसे भी आप हृदयंगम करलें । संवर का स्वरूप बंधुओ ! अर्हषि महाकाश्यप ने सर्वप्रथम संवर का वर्णन किया है। मैं भी उसी क्रम से आपको समझाता हूँ । यद्यपि सबसे पहले मुझे आपको संवर का लक्षण, परिभाषा आदि बताने चाहिए लेकिन आप विषय को सरलता से समझ सकें इसलिए एक दृष्टान्त देता हूँ एक कछुआ है । वह नदी या तालाब के किनारे रेती में चुपचाप पड़ा हुआ है । उसी समय उसे शृगाल जैसे मांसभोजी पशु देख लेते हैं, वे उस पर आक्रमण करते हैं । किन्तु कछुआ तत्काल अपनी गरदन, हाथ-पैर आदि कोमल अंगों को समेट लेता है और इस प्रकार उन मांसभोजी पशुओं के आक्रमण को विफल कर देता है ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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