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________________ जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय धर्मप्रेमी श्रोताजनो! पिछले प्रवचन में हमने चर्चा की थी कि जन्म का कारण है कर्म । जन्म लेकर आत्मा कर्म करता है, और कर्म के कारण आत्मा मृत्यु प्राप्त करके पुनः परलोक में जाता है । वहां फिर नया एक शरीर धारण करता है, फिर कर्म करता है। इस प्रकार जन्म-कर्म-मृत्यु-यह चक्र चलता ही रहता है। अब आज के प्रवचन में अहर्षि महाकाश्यप के शब्दों में हम यह बताना चाहते हैं कि इस जन्म-मरण के हेतुभूत पुण्य-पाप रूप कर्म को. समूल नष्ट कैसे किया जा सकता है ? यद्यपि इस अध्ययन का विषय बहत गूढ है। कर्मनिरोध के उपाय -संवर और कर्मक्षय के साधन निर्जरा (तप) का विवेचन जैनदर्शन में बड़ी सूक्ष्मता के साथ किया गया है, किन्तु यह समझना बहुत जरूरी है । सम्भव है कुछ बातें आपकी समझ में न आये तो पुनः पूछ लेवें, या बार-बार विचार करें तो बन्धनमुक्ति का यह सिद्धान्त आपकी समझ में आ जायेगा। पुण्य-पाप विनाशक : संवर और निर्जरा संवरो निज्जरा चेव पुण्ण-पाव-विणासणं। संवरं निज्जरं चेव सव्वहो सम्ममायरे ॥४॥ -संवर और निर्जरा, ये दोनों पुण्य और पाप के विनाशक हैं। अतः मुमुक्षु साधक संवर और निर्जरा का सम्यक् प्रकार से आचरण करे। आगमों में संवर और निर्जरा के लिए एक सुन्दर रूपक देकर समझाया गया है। आत्मा (जीव) एक सरोवर है, उसे कर्म रूपी जल से रहित करना है । अभी उसमें पुण्य और पाप का मीठा और कड़ आ जल
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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