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अमर दीप
प्राप्त हो जाएगी तो कहेगा - मेरी बुद्धि से यह प्राप्त हुई है, किन्तु हार मिलेगी तो वकील को गवाह को या न्यायाधीश को दोष देगा, या कोसेगा । मनुष्य की आदत है, वह अपने फायदे की चीज तो स्वयं लेना चाहता है किन्तु घाटे की चीज दूसरे के शिर मंढ़ देता है। एक नौजवान मुसलमान बीवी का शौहर गुजर गया। कुछ दिन बाद उसने दूसरा शौहर किया । तो उनका रिवाज था कि दूसरे शौहर के साथ जाने से पहले घर-मोहल्ले की औरतें इकट्ठी होतीं और वह बीवी अपने पहले शौहर का नाम लेकर रोती । बीवी ने पहले शौहर का नाम लेकर रोना शुरू किया
"हाय मेरे छुट्टन मियां, तुमने इतनी बढ़िया पोशाकें बनवाईं उनको अब कौन पहनेगा ?
होने वाला शोहर बोला- फिकर मत कर, हम पहनेंगे ?
बीबी बोली - हाय मियां, तुमने कितनी बढ़िया घोड़ी खरीदी, इस पर अब कौन चढ़ेगा ?
नया शौहर बोला - तू फिकर काहे को करती है, हम चढ़ गें । यों चार पाँच बार सवाल-जबाव के बाद बीवी बोली- हाय मेरे मियां, तुमने पाँच हजार का कर्जा सिर पर छोड़ दिया उसको कौन चुकायेगा ?
अब मियां झेंप गये, पास में बैठे लोगों से बोले - अरे, मियां, बारीबारी सभी बोलो, मैं अकेला कहाँ तक बोलूंगा ?
तो मनुष्य की आदत है, "मीठा-मीठा हप्प और कड़वा - कड़वा थू ।” पुण्य का फल खुद हड़पना चाहता है और पाप का फल दूसरों के सिर मंढ़ना । पर यह न्याय कुदरत के दरबार में चल नहीं सकता । यहाँ पाप और पुण्य सभी अपने करने वाले के सिर पड़ते हैं । इसलिए जैन दर्शन कहता है, पाप के फल भोगते समय घबरा मत, और पुण्य के फल भोगते समय इतरा मत !
पुण्य के कल्पवृक्ष को सेवा, दया, परोपकार आदि के जल से सींच, ताकि वह हरा-भरा रह सके । अन्यथा, तेरा अर्जित पुण्य भी शीघ्र नष्ट हो सकता है । दूसरी और मानव पाप ( अशुभकर्म ) का फल भोगते समय छटपटाता है, बेचैन हो उठता है, निमित्तों को कोसने लगता है, उन पर आक्रोश करता है, चीखता-चिल्लाता है । उक्त निमित्त को अपने दुःख का कारण मानकर उसे नष्ट करने पर तुल जाता है, किन्तु पाप कर्म की जो जड़ है, उसे नष्ट नहीं करता, यही मनुष्य का अज्ञान है । कर्मवाद कहता है कि जिस तरह पुण्यफल भोगते समय तू स्वयं को जिम्मेवार मानता है, उसी तरह