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जन्म और कर्म का गठबन्धन
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वास्तव में, मन के कषाय-विषय-युक्त आवेगों और विकारों से ही कर्मों का बन्धन और सिलसिला आगे के लिए चलता है । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र कहा गया है
'पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं ।
जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।' ३२ / ६८
- मन की दुष्टता - उद्व ेगशीलता से जीव कर्मों को खींचता है, वे कर्म आत्मा के साथ लगाकर फिर दुःखदायी फल देते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यानुपुद्गलान् आदत्ते ।
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- ( अ० ८ / २ - ३ )
स बन्धः ।
कषायुक्त परिणति से जीव कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, और यह ग्रहण ही कर्मों का बन्ध है ।
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पुण्य और पाप दोनों बन्ध के कारण हैं, क्योंकि दोनों आस्रव हैं । दोनों ही बन्धन हैं । एक सोने की बेड़ी है तो दूसरी लोहे की । एक से भौतिक सुख मिल सकता है, किन्तु वह भी क्षणिक है और उसका परिणाम भी दुखरूप ही होता है। यात्री वन से पार होता है, तब महकते गुलाब के फूल उसके मन-मस्तिष्क को सुरभित और मस्त बना देते हैं । जबकि कांटे पैर में चुभकर तन-मन को दुःखित कर डालते हैं । कांटों में तन उलझता है तो फूलों में मन । दोनों ही उलझनें हैं, और दोनों ही बंधन हैं, रुकावट है । दोनों ही लक्ष्य से दूर करते हैं । फूलों से सुगन्ध भले ही मिल जाए, लक्ष्य को निकट लाने में असमर्थ हैं । लक्ष्य का साधक मुमुक्षु जितना शूल से बचेगा, उतना ही या उससे भी अधिक फूल से भी बचेगा, क्योंकि शूल की चुभन थोड़ी ही देर रोकती है, मगर फूल की सौरभ तो मन को ही बाँध लेती है । मन का बन्धन, तन के बंधन से भी अधिक मजबूत होता है । अतः साधक को मोक्षमार्ग में बाधक दोनों ही बन्धन तोड़ फेंकने हैं ।
पुण्य-पाप के लिए जिम्मेदार : स्वयं
पुण्य का फल मधुर है, और पाप का फल कडुआ । दोनों के विपाक के रूप में प्राणी को शुभ या अशुभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है ।
अज्ञानी मानव पुण्य के मधुर सुस्वादु (अभीष्ट ) फल प्राप्त होने पर आसक्तिपूर्वक भोगता है, तो और नये कर्मबन्धन कर लेता है । उसका अहं पुण्यफल भोग के समय कहने लगता है— मैंने अपने श्रम से इसे अर्जित किया है, दूसरे का इस पर कोई अधिकार नहीं । यदि किसी मुकद्दमे में विजय