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________________ १०८ अमर दीप छाया । कभी धूप यहाँ पे, कभी यहाँ पे समझ ले यह कर्मों की सारी धूप-छाँव के इस खेल में तो हरदम तुझको मुस्काना पड़ेगा ||२|| माया || सचमुच, कर्मों का खेल निराला है । इस खेल के मैदान में जो सच्चा खिलाड़ी है, वह तो कर्मों के आगमन के समय सावधान रहता है और प्राचीन कर्मों को तप, जप, व्रत, नियम आदि धर्माचरण द्वारा काट देता है अथवा शिथिल बना देता है । निकाचित रूप से न बँधे हुए हों, तो उन अशुभ कर्मों को शुभ में परिणत कर डालता है । परन्तु जो कच्चा खिलाड़ी है, वह हर शुभाशुभ कर्म के उदय के समय हार खा जाता है, असावधान होकर निमित्तों को कोसने लगता है । अपने उपादान का विचार करके उस कर्म का फल भोगकर क्षय करने का पुरुषार्थ नहीं करता । मनुष्य के उत्थान और पतन, सुख और दुःख, उन्नति और अवनति, जीवन और मरण, बाल्य, युवा और वृद्धत्व, धनी और निर्धन, बुद्धिमान् और मंदबुद्धि आदि सभी अवस्थाओं का मूल कारण कर्म है । प्रश्न होता है कि एक ही जगह, जैसे कर्म : वैसा शरीर और भोग एक ही समय में एक ही मां के उदर से जन्मे हुए दो लड़कों की आकृति, प्रकृति, रूप, रंग, बुद्धि, आदि में विषमता क्यों है ? इसी प्रश्न का समाधान अर्हतषि महाकाश्यप करते हैं जहा अंडे जहा बीए, तहा कम्म संताणं चेव भोगे य, निव्वत्ती वीरियं चेव, नाणा-वण- विक्कस, सरीरिणं । नाणावत्तमिच्छइ ॥६॥ संकप्पे य अणेगहा । दारमेयं हि कम्मुणो ॥७॥ - जैसा अंडा होता है वैसा ही पक्षी भी होता है; जैसा बीज होगा, वैसा ही वृक्ष होगा । इसी प्रकार जैसे कर्म होंगे, मिलेगा । कर्म ही के कारण संतति में और देता है। आत्मा को वैसा ही शरीर भोग में नानात्व दिखाई - निवृत्ति (रचना ), वीर्य ( पुरुषार्थ - पराक्रम), अनेकविध संकल्प, नाना प्रकार के वर्ण और वितर्कों का द्वार कर्म है । वस्तुत: यह संसार विचित्रताओं और विरूपताओं का भण्डार है । इसमें कोई भी प्राणी एक सरीखा नहीं मिलेगा। एक ही माँ के उदर से पैदा हुए दो लड़कों में एक मूर्ख है तो एक विद्वान् । वैदिक दर्शन इस
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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