________________
१०६
अमर दीप
" किसी के भाई की मृत्यु हो जाती है, किसी को बहन की मृत्यु होती है, कभी पुत्र-पुत्री या पत्नी की मृत्यु होती है अथवा अन्य स्वजन - परिजन की मृत्यु होती है । अथवा उनको दरिद्रता, दुर्भोजन, मानसिक चिन्ताएँ, अप्रिय संयोग एवं प्रिय का वियोग होता है या अपमान, घृणा, पराजय या अन्य अनेक दुःख व दुश्चिन्ताएँ होती हैं तो स्वयं दुःख एवं दुश्चिन्ताओं का अनुभव करते हुए आत्मा अनादि - अनन्त दीर्घ-मार्गयुक्त चातुर्गतिक संसारसागर में परिभ्रमण करते हैं । "
यह है जन्म और कर्मों के गठबन्धन का दारुण परिणाम ! ये दुःख, नए गए हैं, वे तो प्राय मनुष्यभव में मिलते हैं, नारक और तिर्यञ्चगति के अगणित दुःखों की करुण कहानी सुनकर तो गेंगटे खड़े हो जाते हैं । उत्तराध्ययन (अ. १९) में मृगापुत्र ने नरक के दुःखों का वर्णन करते हुए कहा है- "नरक में कितने-कितने भयंकर कष्ट मैंने सहे हैं । नरक की कुम्भ में मैं अनेक बार गिराया और पकाया गया हूँ । नरक की प्रचण्ड अग्नि में मैं अनेक बार जला हूँ । नरक के शाल्मली वृक्ष के तलवार जैसी तीखी धार वाले उन पत्तों से अनेक बार मेरे अंग-प्रत्यंग काटे गए हैं। इसे भालों में पिरोया गया है । यन्त्रों (कोल्हू या घाणी) में पीला गया है । वहाँ इसकी चीख-पुकार या कष्टकथा सुनने और आश्वासन देने वाला कोई नहीं था ।"
एक कवि ने पाप कर्मों के कारण होने वाले जन्म-मरण रूप संसार' के विविध दुःखों की करुणकथा - गाथा गाते हुए कहा है
दुनिया दुःखकारी, तू छोड़ सके तो छोड़; दुनिया० ॥ व ॥ जन्म-मरण का दुःख अनन्ता, दुखड़ा जैसा सुई चुभन्ता | साढ़े तीन करोड़ || दुनिया दुःखकारी० ॥
तो नरकगति और तिर्यञ्चगति के दुःखों की कहानी तो कुछ परोक्ष हो सकती है, किन्तु मनुष्यगति के दुःख भी कम नहीं हैं । पापकर्मवश मनुष्य मनुष्यगति में भी भयंकर दुःखों से घिरा रहता है । देखिये कवि क्या कहता है—
किसी के घर में पुत्र कंस-सा; किसी के घर में नारकर्कशा होती माथा फोड़ || दुनिया० ॥
किसी के घर में सासू लड़तीः ननन्द-भौजाई झड़गा करती । बोले कड़वा बोल | दुनिया० ॥
सार यह कि जब तक कर्म है, तब तक किसी न किसी रूप में दुःखों प्रहार आत्मा को सहने ही पड़ेंगे। एक गाथा में अर्हतषि महाकाश्यप कह रहे हैं