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________________ जन्म और कर्म का गठबन्धन १०५ फिर भी दुःखी है, अभावग्रस्त है, पीड़ित है और दूसरा उसी की जाति का, उसी के पड़ोस में रहने वाला हत्यारा, लुटेरा, डाक या व्यभिचारी है, वह मौज में है. उसके पास पैसा भी है, सुख के साधन भी हैं। फिर अच्छे कर्म करने से क्या लाभ ? इन दोनों प्रश्नों के सन्दर्भ में ही अर्हतर्षि महाकाश्यप शुभकर्मों (पूण्य) के फल के विषय में आगे बताएँगे, फिलहाल पाप-कर्मों के फल विषय में बताते हुए कहते हैं। इसका भावार्थ यह है "जब तक आत्मा कर्मों से विहीन नहीं होती, तब तक इस संसार में उसका पुन: पुन: आवागमन चालू रहता है । वह अशुभ कर्मों के फलस्वरूप नरक, तिर्यञ्च या मनुष्यगति में ऐसी जगह जन्म लेता है जहाँ उसके हाथ काटे जाते हैं, कहीं पैर काटे जाते हैं, कहीं कान छेदे जाते हैं। कहीं नाक, होठ या जीभ का छेदन होता है। कहीं सिर को दण्ड दिया जाता है, कहीं (चोर या व्यभिचारी आदि का) सिर मुंड दिया जाता है। कहीं जीव को उद्विग्न करके कूटा-पीटा जाता है; कहीं उसका तर्जन किया (झिड़का) या ताड़न (मारा-पीटा या हैरान) किया जाता है । कहीं पर प्राणियों का वध किया जाता है तो कहीं उसे बंधनों में जकड़ा जाता है। कहीं उसे चारों ओर से (हैरान परेशान करके) क्लेश (कष्ट) दिया जाता है।" "कहीं शृंखला और बेड़ी के बन्धन हैं तो कहीं जिंदगी भर बन्धन ही बन्धन है । कहीं युगलरूप में शृंखला में जकड़ा जाता है । कहीं सिकोड़ कर, मोड़कर कष्ट दिया जाता है। कहीं किसी के हृदय (वक्षस्थल उखाड़े जा रहे हैं। कहीं किसी के दाँत तोड़े जा रहे हैं। कहीं किसी वृक्ष की शाखा से बांधा जा रहा है। कहीं किसी को शृंखला से बांध कर उलटा लटकाया जाता है । कहीं किसी को घसीटा जा रहा है। कहीं किसी को घाणी में पीला जा रहा है। कहीं किसी को पूंछ से बांध कर चमेड़ी उधेड़ी जाती है, कहीं आग लगाकर जला दिया जाता है। किसी को आहार-पानी देना बंद कर दिया जाता है । कहीं कोई दुर्गति, दरिद्रता, फजीहत आदि के दुःख से पीड़ित है, कोई भोजन के अभाव में तो कोई अभोज्य भोजन के कारण द:खी है। कोई दिन-रात पारिवारिक या आर्थिक चिंताओं से व्यथित है।" इसके अतिरिक्त इस संसार में जन्म लेने के कारण नाना प्रकार के पारिवारिक ममत्व सम्बन्ध बंध जाते हैं । कहीं लोगों से वैसे ही मोह-ममतापूर्ण सम्बन्ध जुड़ जाता है । उनके संसर्ग से भी अनेक प्रकार के दुःख सताते हैं, उनका प्रतिपादन भी अहर्षि महाकाश्यप करते हैं
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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