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१०४ अमर दीप
कर दिया है कि अगर तुम्हें भव भ्रमण समाप्त करना है तो कर्म को समाप्त कर दो ।
जन्म-मरण रूप संसार (भव) में भ्रमण कराने वाला मूल कारण कर्म है । कारण के समाप्त होते ही कार्य भी समाप्त हो जाएगा। अगर कर्म परम्परा को रोकना या शिथिल करना चाहते हो तो सम्यग्दर्शन- ज्ञानयुक्त सम्यक् चारित्र का पालन करो। क्योंकि कर्म रहेगा तो जन्म होता रहेगा, और जन्म होगा तो फिर नये कर्मों का संचय होता रहेगा ।
जन्म-कर्म के अन्योन्याश्रय सिद्धान्त का प्रतिपादन करके महर्षि महाकाश्यप ने भगवान् महावीर के कर्म सिद्धान्त का सुन्दर प्रतिपादन कर दिया है । उत्तराध्ययन सूत्र ( ३२ / ७) में भगवान् महावीर ने यही कहा हैकम्मं च जाइ-मरणस्स मूलं
- कर्म ही जन्म-मरण का मूल है ।
कर्म ही हैं जो मनुष्यों को विभिन्न गतियों, और योनियों में भटकाते हैं, नाना रूप धारण कराते हैं । कर्म-परम्परा ही मनुष्य को अनेक नाच नचाती है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा हैदेवलोएसु, नरऐसु वि एगया ।
एगया
गया आसुरं कायं अहाकम्मेहिं गच्छइ ||३|| एगया खत्तिओ होई, तओ चंडाल - वोक्कसो । तओ कीड-पयंगो य, तओ कुन्थुपिवीलिया ॥४॥
कर्मानुसार जीव कभी देवलोकों में जाता है, तो कभी नरकों में जाता है तथा कभी आसुर-काय में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार कभी वह क्षत्रिय होता, कभी चाण्डाल और वुक्कस ( शूद्र) होता है । फिर कभी कीट, पतंग, कुन्थुआ एवं चींटी के रूप में जन्म लेता । मतलब यह है कि संसार के इस नाटक का सूत्रधार कर्म है । कर्मों के कारण ही संसार के रंगमंच पर होने वाली विचित्रताएँ, घटनाएँ, विविध गतियों, योनियों एवं जाति-कुलों जन्म आदि सब है । संसार के इस भयानक नाटक के दृश्यों को समाप्त करना है तो कर्मरूपी सूत्रधार को बिलकुल हटाना होगा ।
अशुभ कर्मों के अशुभ परिणाम यह तो निश्चित है कि मनुष्य जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल पाता है। नीम का बीज बोकर कोई भी आम का फल पाना चाहे, यह हो नहीं सकता ।
कोई यह कह सकता है कि कर्मों का संचय होने से क्या हानि है ? हम संसार में यह देखते हैं कि एक व्यक्ति अच्छे-अच्छे कार्य कर रहा है,