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दुःख विमुक्ति के लिए ग्रन्थच्छे १०१
पन्ना समिक्ख धम्मं तत्तं तत्त-विणिच्छ्यं
'प्रज्ञा (सद्-असद् विवेकशालिनी बुद्धि) से तात्विकरूप से निश्चित धर्मतत्त्व का समीक्षण करो ।'
आप और हम अनेक पदार्थों को देखते हैं, बाह्य दृष्टि से देखना और वस्तु तत्त्व को गहराई से जानने-देखने में रात-दिन का अन्तर है ।
सम्यक्ज्ञान में आत्मा की स्मृति रहती है "मैं अनन्त शक्तिमान आत्मा हूँ, मैं जड़ से अलग हैं; देह मरता है, आत्मा नहीं", ऐसी स्मृति जहाँ रहती है, उस ज्ञान के समक्ष अज्ञान टिक नहीं सकता । " ग्रन्थ कौन-कौन से हैं ? वे मेरी आत्मा पर कैसे हावी हो जाते हैं ? वे कैसे दूर किये जा सकते हैं ? पूर्वजन्मकृत या इस जन्म में पूर्वकृतकर्मों के कारण कौन-कौन से कर्म मेरी आत्मा के विकास को रोके हुए हैं ? वे कैसे दूर किया जा सकते हैं ? इत्यादि सब आत्मस्मृतिमूलक सम्यग्ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है । मैं आत्मा हूँ । ऐसी स्मृति सदैव आत्मा में रहेगी, तभी आत्मा की विशुद्धि करने की तीव्र भावना, इच्छा या विचारणा जागेगी । आत्मस्मृति आत्मा को 'स्वभाव' में स्थित रखने का कारण बनेगी । वही परमात्मा का स्मरण करायेगी ।
गजसुकुमाल मुनि ने जिस दिन भगवान् नेमिनाथ से दीक्षा ली, उसी दिन उन्होंने ग्रन्थों के कारण कई भवों के बंधे हुए कर्मजाल को तोड़कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का उपाय - अर्थात् आत्मा की पूर्ण विशुद्धि का उपाय भगवान् से पूछा । भगवान् ने अपने ज्ञान में उनका आयुष्य अत्यल्प देखा, उनकी आत्मशक्ति, मनोबल एवं परिणामों की धारा देखी । उन्होंने उन्हें महाकाल नामक श्मशान में एक पुद्गल पर दृष्टि एकाग्र करके कायोत्सर्ग करने और किसी भी प्रकार का उपसर्ग हो तो उसे समभाव से सहन करने का आदेश दिया ।
गजसुकुमाल मुनि वहाँ आत्म-स्मृति को सतत जागृत रखकर कायोत्सर्ग में लीन हो गये । उपसर्ग कितना घोरतम था ? मुण्डित मस्तक पर धधकते अंगारे रखने पर शरीर को कितनी वेदना होती है ? परन्तु उन्होंने शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान को आत्मसात् कर लिया था । यही कारण है कि पूर्वभवों के ग्रन्थों के कारण बंधे हुए घोरकर्मों को उन्होंने तोड़ डाला और रागद्वेष एवं कषाय रूप ग्रन्थ को आत्मज्ञान के बल पर आने ही नहीं दिया, जिसके कारण नये कर्मों का आगमन बिलकुल रुक गया और