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अमर दीप
चारित्र) से और पारं अर्थात् - परलोक में एक गुण (ज्ञान) से ( ग्रन्थ छेदन) होता है; ऐसा तेलीपुत्र अर्हतर्षि ने कहा है ।
वास्तव में अर्हषि केतलीपुत्र ने ज्ञान और चारित्र दोनों को इहलोक में ग्रन्थ-छेदन का कारण इसलिए बताया है कि ज्ञान का आत्मा से सीधा सम्बन्ध है और चारित्र का शरीर से; क्योंकि ज्ञान आत्मा का निजगुण है और वह जैसे इस भव में आत्मा के साथ रहता है, वैसे परभव में भी जाता है; किन्तु चारित्र आत्मा का गुण होते हुए भी उसका पालन क्रियात्मकं होने से बहुधा शरीर से होता है । मानव शरीर यहीं नष्ट हो जाता है, वह परलोक में साथ नहीं जाता । परलोक में उसके द्वारा अर्जित ज्ञान साथ में जाता है, चारित्र नहीं । 'भगवती सूत्र' में भगवान् से गौतम स्वामी द्वारा पूछा गया --
(प्र०) इहभविए भंते ! नाणे, परभविए नाणे, तदुभयभविए णाणे ? ( उ० ) गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभवि वि नाणे ।
(प्र०) इहभविए भंते ! चरित्ते, परभविए चरित्ते, तदुभय भविए
चरिते ?
( उ० ) गोयमा ! इहभविए चरिते, नो परभविए चरिते, नो तदुभय. भविए चरिते ।
(प्र०) भगवन् ! ज्ञान इस भव में आत्मा के साथ रहता है या परभव में अथवा दोनों भवों में ?
( उ० ) गौतम ! ज्ञान इस भव में आत्मा के साथ रहता है, परभव में भी और दोनों भवों में भी आत्मा के साथ रहता है ।
( प्र०) भगवन् ! चारित्र इस भव में आत्मा के साथ रहता है, या परभव में, अथवा दोनों भवों में रहता है ?
( उ० ) गौतम ! चारित्र इसी भव में आत्मा के साथ रहता है, परभव में नहीं रहता, और न दोनों भवों में साथ रहता है ।
वास्तव में, ग्रन्थ-छेद आत्मिक ज्ञान के द्वारा ही होता है ।
भगवान् महावीर के मुख्य पट्टधर शिष्य गणधर गौतम स्वामी से केशी श्रमण ने पूछा- दो प्रकार के वेष एवं दो प्रकार की क्रिया करते हुए भी अर्थात् - दो प्रकार के धर्म होते हुए भी आपको विप्रत्यय ( संशय) क्यों नहीं होता ? उन्होंने उत्तर दिया-